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कुमारपालप्रतिबोधसङ्क्षेपः
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नाणेण पुन्न - पावाई जाणिउं ताण कारणारं च । जीवो कुणइ पवित्तिं पुन्ने पावाओ विणियत्तिं ॥३६४॥ पुन्ने पवत्तमाणो पावइ सग्गा - पवग्गसोक्खाई ।
नारय
- तिरियदुहाण य मुच्चइ पावाओ विणियत्तो ॥ ३६५॥ जो पढइ अउव्वं सो लहेइ तित्थंकरत्तमन्नभवे । जो पुण पढाइ परं सम्मसुयं तस्स किं भणिमो ॥ ३६६ ॥ जो उण साहेज्जं भत्त - पाण-वरवत्थ- पुत्थयाईहिं । कुणइ पढंताणं सो व नाणदाणं पयट्टे || ३६७॥ नाणमिणं दिताणं गिण्हंताणं च मुक्खप (व ? ) रदारं । केवलसिरी सयं चिय नराण वच्छत्थले लुढइ || ३६८|| सम्मं नाणेण वियाणिऊण एगिंदियाइए जीवे । तेसिं तिविहं तिविहेण रक्खणं अभयदाणमिणं ॥ ३६९ ॥ जीवाणमभयदाणं यो देइ दयावरो नरो निच्चं । तस्सेह जीवलोए कत्तो वि भयं न संभवइ || ३७०|| जं नवकोडीसुद्धं दिज्जइ धम्मियजणस्स अविरुद्धं । धम्मोवग्गहहेउं धम्मोवट्टंभदाणमिणं ॥ ३७१||
तं असण- पाण-ओसह-सयणा - ऽऽसण-वसहि-वत्थ - पत्ताई । दायव्वं बुद्धिमया भवन्नवं तरिउकामेण ॥ ३७२|| तं दायग-गाहग-काल- भावसुद्धीहिं चउहिं संजुत्तं । निव्वाणसुक्खकारणमणंतनाणीहिं पन्नत्तं ॥ ३७३ ॥ जो देइ निज्जरत्थी नाणी सद्धाजुओ निरासंसो । मयको जुग्गं जइजणस्स सो दायगो सुद्धो ॥ ३७४ ॥ जो देइ धण-खेत्ताइं जइ जणाणुचियमेअविवरीओ | सो अप्पाणं तह गाहगं च पाडेइ संसारे ॥ ३७५ ॥ जो चत्तसव्वसंगो गुत्तो विजिइंदिओ जियकसाओ । सज्झाय-झाणनिरओ साहू सो गाहगो सुद्धो ||३७६ || कम्मलहुत्तणेण सो अप्पाणं परं च तारेइ । कम्मगुरू अतरंतो सयं पि कह तारए अन्नं ॥ ३७७||
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