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कुमारपालचरित्रसङ्ग्रहः पुव्वुत्तगुणविउत्ताण जं धणं दिज्जए कुपत्ताण । तं खलु धुव्वइ वत्थं रुहिरेणं चिय रुहिरलित्तं ॥३७८॥ दिन्नं सुहं पि दाणं होइ कुपत्तम्मि असुह फलमेव । सप्पस्स जहा दिन्नं खीरं पि विसत्तणमुवेइ ॥३७९।। तुच्छं पि सुपत्तम्मि उ दाणं नियमेण सुहफलं होइ । जह गावीए दिन्नं तिणं पि खीरत्तणमुवेइ ॥३८०॥ दिन्नेण जेण जइया जइजणदेहस्स होइ उवयारो । भत्तीए तम्मि कालेयं दिज्जइ कालसुद्धं तं ॥३८१।। अप्पाणं मन्नंतो कयत्थमेगंतनिज्जराहेउं । जं दाणमणासंसं देइ नरो भावसुद्धं तं ॥३८२॥ महया वि हु जत्तेणं बाणो आसन्नलक्खमहिगिच्च । मुक्को न जाइ दूरं इय आसंसाए दाणं पि ॥३८३।। मोक्खत्थं जं दाणं तं पइ एसो विही मुणेयव्वो । अणुकंपादाणं पुण जिणेहिं कत्थ वि न पडिसिद्धं ॥३८४।। पत्तम्मि भत्तिजुत्तो जीवो समयम्मि थोयमवि दितो । पावेइ पावचत्तो चंदणबाल व्व कल्लाणं ॥३८५।।
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[अत्र दानविषये चन्दनबालादीनां कथानकान्यनुसन्धेयानि ।]
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६६२६. कुमारपालस्य हेमचन्द्रसूरि प्रति स्वभिक्षाग्रहणप्रार्थना, राजपिण्डग्रहणे सूरेनिषेधश्च ।
एवं सोउं मुणिदाणधम्ममाहप्पमुल्लवइ राया । भयवं ! गिण्हह मह वत्थ-पत्त-भत्ताइयं भिक्खं ॥३८६।। तो वज्जरइ मुणिंदो इमं महाराय ! रायपिंडो त्ति । भरहस्स व तुह भिक्खा न गिण्हिउं कप्पइ जईणं ॥३८७।।
[राजपिण्डविषये भरतचक्रिकथाऽत्रानुसन्धेया ।]
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