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________________ ३४ लिखा है जिसके सौ तरह से अर्थ किए हैं । इस निमित्त इन्हें 'शतार्थी' की बहुविद्वत्तासूचक उपाधि मिली थी । इनकी कवित्वशक्ति बहुत अच्छी थी। जिन्होंने इनकी बनाई हुई 'सूक्तिमुक्तावली'-- जिसका अपर नाम सिंदूरप्रकर है-का पाठ किया है वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं। ये संस्कृत के समान प्राकृत भाषा के भी पूरे पारंगत थे । महाराज कुमारपालदेव के राज्यत्व काल में 'सुमतिनाथ चरित्र' नामक एक बहुत बड़ा ग्रन्थ प्राकृत में लिखा है। इस 'कुमारपाल चरित्र' में भी बहुत भाग प्राकृत ही है। विक्रम संवत् १२४१ में इस ग्रन्थ की समाप्ति हुई है। अर्थात् महाराज कुमारपाल की मृत्यु से ११ वर्ष बाद यह ग्रन्थ लिखा गया है। ग्रन्थ बहुत बड़ा है। श्लोकसङ्ख्या कोई इसकी ९००० के लगभग होगी। २. मोहपराजयनाटक, यशःपालमन्त्रीकृत । सुप्रसिद्ध युरोपीय पण्डित प्रो० पीटरसन (Prof. Peterson) ने, पूनाकी डेक्कन कालेज (Deccan College) के विद्यार्थीयों के सन्मुख श्रीहेमचन्द्राचार्य के विषय में एक व्याख्यान दिया था । उसमें, इस ग्रन्थ के विषय में बोलते हुए उन्होंने विद्यार्थीयों से कहा था कि-"इस तुम्हारी कॉलेज के, उस अगले दिवानखाने के ही 'पुस्तक संग्रह' में एक पुस्तक पड़ी है, जिसमें यह वृत्तान्त लिखा हुआ है कि, कुमारपाल राजा ने किस वर्ष के किस महिने और किस दिन को जैनधर्म स्वीकार किया। क्रिश्चीयन लोगों के "पिलग्रीम्स प्रोग्रेस' नामक पुस्तक की तरह, अलंकार रूप से, कुमारपाल राजा के जैनधर्म में दीक्षित होने का वर्णन किया गया है । यह पुस्तक नाटक के रूप में ताडपत्र पर लिखी हुई है, और 'मोहपराजय' इसका नाम है । हेमचन्द्राचार्य से सम्बन्ध रखनेवाले इतिहास पर, प्रकाश डालनेवाली पुस्तकों में से, यह पुस्तक सबसे प्राचीन है। इस पुस्तक के कर्ता का नाम यश:पाल है । कुमारपाल राजा की मृत्यु के बाद, उसके राज्य का स्वामी जो अजयपाल हुआ था, उस का यह एक प्रधान था । इस 'मोहपराजय' नाटक में, कुमारपाल राजा के साथ, धर्मराज और विरतिदेवी की पुत्री कृपासुन्दरी का पाणिग्रहण, तीर्थंकर महावीर और आचार्य हेमचन्द्र की सन्मुख, कराया गया है । जैनधर्म की इस बड़ी भारी विजय की मिति संवत् १२१६ के मार्गशीर्ष मास की शुक्ल द्वितीया है-अर्थात् ईस्वीसन् ११६० में, कुमारपाल राजा ने प्रकट रूप से जैनधर्म का स्वीकार किया था । इस तारीख के निश्चय में संशयित होने का कोई भी कारण नहीं है, क्योंकि यह पुस्तक ईस्वीसन् ११७३ से ११७६ के बीच में-अर्थात् इस उपर्युक्त तारीख के बाद १६ वर्ष के अन्दर ही लिखी हुई होनी चाहिए।" ३. प्रबन्धचिन्तामणि, मेरुतुङ्गाचार्यकृत । यह ग्रन्थ बहुत अच्छा है। संस्कृत भाषा में, गद्य में, इसकी रचना की गई है । इसमें अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख है । राजतरङ्गिणी के ढंग पर लिखा हुआ है । आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों ने इस ग्रन्थ को अन्य सब ऐतिहासिक लेखों से, अधिक विश्वसनीय माना है । गुजरात के इतिहास के लिए तो केवल यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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