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________________ २९ मालूम देता है कि इस प्रबन्ध की रचना प्रबन्धचिन्तामणि आदि जैसे कुछ पुरातन प्रकीर्ण प्रबन्धों के आधार पर की गई है । इसमें जो पद्य भाग है वह प्रायः सारा ही अन्यान्य ग्रन्थों में से उद्धृत किया गया है । जो गद्य भाग है वह कुछ संग्राहक का स्वयं संकलित किया हुआ और कुछ ग्रथित किया हुआ है । ग्रन्थकर्ता अन्त में कहते हैं कि कुछ तो गुरुमुख से जो सुना उस पर से और कुछ जो लिखित रूप में मिला है उसके आधार से, मैंने यह कुमारपाल राजा का प्रबन्ध निर्मित किया है । जिनमण्डन गणी ने अपने कुमारपाल प्रबन्ध की रचना प्रायः इसी प्रबन्ध के आधार पर की मालूम देती है। वर्णन क्रम एवं, रचनाशैली की समानता के उपरान्त, बहुत से वाक्यसन्दर्भ भी दोनों में एक से मिलते हैं। जिनमण्डन गणी के कुमारपाल प्रबन्ध की रचना वि० सं० १४९९ में पूर्ण हुई थी इसलिए वह प्रस्तुत प्रबोधप्रबन्ध के बाद की रचना है इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं है। क्योंकि जिस प्रति के आधार पर से यह प्रबन्ध यहाँ मुद्रित किया गया है उसकी प्रतिलिपि ही सं० १४६४ में अर्थात् जिनमण्डन गणी की रचना के ३५ वर्ष पूर्व हुई थी। जैसा कि ऊपर सूचित किया गया है-यह प्रबन्ध भिन्न भिन्न प्राचीन चरितों-प्रबन्धों के उद्धरणों और अवतरणों का एक संग्राहात्मक संकलन सा है । इसके प्रारम्भ भाग में, २०० पद्यों वाला वह संक्षिप्त चरित, जो इस संग्रह में प्रथम कृति के रूप में मुद्रित किया गया है, पूर्ण रूप से अन्तर्ग्रथित कर लिया गया है । इसी तरह से प्रबन्धचिन्तामणि आदि ग्रन्थों में जो वर्णन है उसके भी अनेक अंश यथावत् संकलित कर लिए गये हैं। इस प्रकार इस प्रबन्ध में चरित्रात्मक वर्णन के सिवा उपदेशात्मक और प्रचारात्मक उद्धरणों का भी खूब संग्रह किया गया है और इसीलिए संग्राहक विद्वान् ने इसका नाम कुमारपालचरित्र या कुमारपालप्रबन्ध न रखकर कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध रखना योग्य माना है । इस प्रबन्ध में कुमारपाल के जीवनविषय की मुख्य मुख्य घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन दिया गया है जिनका उल्लेख पूर्वकालीन चरित्र ग्रन्थों में और प्रबन्धों में एक या दूसरे रूप में मिलता है। साथ में प्रसंगोपात्त उपदेशात्मक उल्लेख भी विस्तृत रूप में संगृहीत किये गये हैं जिससे एक प्रकार से धार्मिक कथाग्रन्थ का स्वरूप इसे प्राप्त हो गया है । (४) चतुरशीतिप्रबन्धान्तर्गत कुमारपालदेवप्रबन्ध यह इस संग्रह में ४थी कृति है । राजशेखरसूरि ने जो प्रबन्धकोश नामक ग्रन्थ बनाया है उसमें कुछ मिलाकर २४ प्रबन्ध हैं जिसके कारण उस ग्रन्थ का दूसरा नाम चतुर्विंशतिप्रबन्ध भी सुप्रसिद्ध है । इसी तरह का एक चतुरशीतिप्रबन्ध नाम का भी संग्रहात्मक ग्रन्थ है जिसमें कुल ८४ प्रबन्धों का संग्रह है । यह प्रबन्ध पूर्ण रूप में मुझे कहीं नहीं देखने में आया । पूना के राजकीय ग्रन्थसंग्रह में एक प्राचीन प्रति उपलब्ध है जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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