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________________ आदेश से, श्रावक लोगों ने अपने गच्छ के अनुयायियों के पढ़ने के लिये इस चरित की प्रतिलिपि करवाई थी। ___ पाटण की उक्त प्रति कुछ कुछ अशुद्ध थी इस लिए इसका संशोधन करने में हमें कुछ कठिनाई ही रही, तो भी यथामति पाठशुद्धि करने का हमने पूरा प्रयत्न किया । ग्रन्थ का पूरा मुद्रण हो चुकने बाद, हमें बीकानेर से साहित्यप्रिय श्रावकबन्धु श्रीयुत अगरचन्द्रजी नाहटा की तरफ से इस ग्रन्थ की एक और प्रति मिली जो वि० सं० १६५६ की लिखी हुई है। उससे इसका मिलान करने पर हमें इन दोनों में परस्पर कहीं कहीं पाठभेद उपलब्ध हुए जिनमें कुछ तो मात्र शाब्दिक परिवर्तन स्वरूप के हैं और कुछ पंक्तियों के और पद्यों के न्यूनाधिकत्व बतलानेवाले हैं । इनमें से जो पाठभेद कुछ खास विशेषत्व रखते हैं उनको हमने इसके साथ परिशिष्ट के रूप में दे दिये हैं। सबसे अधिक विशेषतावाला पाठ भेद है वह प्रारम्भ के मंगलाचरणवाले श्लोकों ही का है। हमारे मुद्रित ग्रन्थ में मंगलाचरण के जो ४ पद्य मिलते हैं उनसे सर्वथा भिन्न प्रकार के ४ पद्य इस बीकानेरवाली प्रति में प्राप्त होते हैं। देखो परिशिष्ट A) । इसका कारण यह तो हो सकता है कि इस ग्रन्थ के संकलन कर्ता ने पहले जो एक आदर्श तैयार किया होगा उसकी प्रतिलिपिवाली ये पाटण और पूनावाली प्रतियाँ होनी चाहियें । उसके बाद संकलन कर्ता ने ग्रन्थ में जो कुछ थोड़ा बहुत पीछे से संशोधनपरिवर्तन किया होगा उस आदर्श की प्रतिलिपिवाली परम्परा की यह बीकानेरवाली प्रति होनी चाहिये । क्योंकि इस प्रति के, पाठ, हमारी मुद्रित प्रति के पाठ से, शब्दसन्दर्भ और वाक्यरचना की दृष्टि से कुछ विशेष परिमार्जित मालूम पड़ते हैं । ऐसे संकलनात्मक ग्रन्थों की प्रतियों में इस तरह के विशेष पाठभेद, इस प्रकार किये गए संशोधन-परिवर्तन के कारण, प्रायः उपलब्ध होते रहते हैं । इससे इसमें कोई खास आश्चर्य की बात नहीं है । ___ बाद में हमें पूना में भी इस ग्रन्थ की एक और तीसरी प्रति प्राप्त हुई जो भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट के राजकीय ग्रन्थ संग्रह में रक्षित है। यह प्रति त्रुटित है । प्रारम्भ के १० पत्र बिल्कुल ही नहीं है और बीच में के भी कुछ पत्र लुप्त हैं पर अन्त का पत्र विद्यमान है। यह प्रति वि० सं० १४८२ की लिखी हुई है और भट्टारिक श्री जयतिलकसूरि के शिष्य पं० दयाकेशरगणि को, ओसवंशीय गोठी संग्राम की पत्नी बाई जासू ने लिखा कर समर्पित की है। इसका यह पुष्पिका लेख इस प्रकार है ।। इति संवत् १४८२ वर्षे फागुण शुदि पंचम्यां गुरौ श्रीमति श्रीतपापक्षे श्रीरत्नागरसूरीश्वराणां गच्छे भट्टारिक श्रीजयतिलकसूरीस्व(श्व )राणां शिक्ष( ष्य) पं० दयाकेशरिगणिवराणां श्रीओससवंश श्र( शृंगार गोठी संग्रामकस्य भार्या बाई जासू नाम्ना लिषाप्य प्रददौ मुदा । चिरं नंदतु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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