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________________ २७ [ज्ञातव्य टिप्पण-यद्यपि कुमारपाल चरित विषयक सबसे प्राचीन और बहुत बड़ा ग्रन्थ जो सोमप्रभाचार्यकृत प्राकृत भाषामय है और जिसका सबसे पहले हमने कोई ३० वर्ष पूर्व संशोधन-सम्पादन किया और जो बडौदा की 'गायकवाडस ओरिएन्टल सीरिझ' में प्रकाशित हुआ उसका नाम भी 'कुमारपालप्रतिबोध' ऐसा ही विशेष प्रसिद्ध हो गया है, परन्तु ग्रन्थकार ने उसका मूल नाम तो 'जिनधर्मप्रतिबोध' ऐसा रखा है । इस ग्रन्थ की ताडपत्रों पर लिखी हुई एक मात्र सम्पूर्ण प्रति जो पाटण के भण्डार में उपलब्ध है और जिसकी प्रति लिपि वि० सं० १४५८ में खम्भात की बृहत्पोषधशाला में भट्टारक श्रीजयतिलकसूरि के उपदेश से, कायस्थ ज्ञातीय महं० मण्डलिक के पुत्र महं० खेताने की है, उसके अन्तिम पुष्पिका लेख में इस ग्रन्थ का निर्देश 'कुमारपाल प्रतिबोध पुस्तक' ऐसा किया गया है । इस लिए हमको उक्त ग्रन्थ का यह नाम विशेष अन्वर्थक लगने से हमने इसी नाम से उसको मद्रित एवं प्रकाशित करना उचित सोचा। परन्तु वास्तव में इसका नाम 'जिनधर्मप्रतिबोध' है और 'कुमारपालप्रतिबोध' नामक वह ग्रन्थ है जिसको हम इस संग्रह में 'कुमारपालप्रतिबोध प्रबन्ध' के नाम से प्रकट कर रहे हैं ।] (३) कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध जैसा कि ऊपर वर्णन दिया गया है इस संग्रह के तीसरे ग्रन्थ का नाम 'कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध' है । यह नाम हमने ग्रन्थ की प्रारम्भिक कण्डिका के उल्लेख पर से अङ्कित किया है । उसमें लिखा है कि-'श्रीकुमारपालभूपालस्य प्रारभ्यतेऽयं प्रबोधप्रबन्धः ।' इस उल्लेख के सिवा ग्रन्थ में और किसी जगह अथवा अन्तिम पुष्पिका लेख में भी इसका खास नाम लिखा हुआ हमें प्राप्त नहीं हुआ । पूना में उपलब्ध एक त्रुटित प्रति में प्रबोध इस शब्द की जगह 'प्रतिबोध' ऐसा पाठ भी मिला है इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि इसका नाम 'प्रतिबोधप्रबन्ध' भी हो सकता है और शायद इसी नाम को लक्ष्य कर उक्त दूसरे नम्बर के चरित के कर्ता सोमतलिकसूरि ने यह लिखा है कि इसका विस्तार 'कुमारपालप्रतिबोध' शास्त्र से जानना चाहिए । दोनों शब्दों का अर्थ प्रायः एक ही है, इससे नाम में कोई विशेष भेद नहीं पड़ता । इस ग्रन्थ का मुद्रण करते समय हमें प्रथम एक ही प्रति प्राप्त हुई थी जो पाटण के भण्डार की थी । इस प्रति के अन्त में जो 'ग्रन्थलेखनप्रशस्ति' दी गई है और जिसको हमने इसके साथ मुद्रित किया है (देखो, पृ० २१२-२१३) उससे ज्ञात है कि वि० सं० १४६४ में, देवलपाटक (काठियावाड के देलवाडा) में पण्डित दयावर्द्धन नाम के यतिवरके १. देखो, ग्रन्थ का अन्तिमप्रशस्तिगतश्लोक- . शशि-जलधि-सूर्यवर्षे शुचिमासे रविदिने सिताष्टम्याम् । 'जिनधर्मप्रतिबोध:' क्लृप्तोऽयं गूजरेन्द्रपुरे ॥ पृ० २९१. इसी तरह प्रत्येक प्रस्ताव के अन्त के पद्य में भी यही नाम सूचित किया गया है। यथा-जिणधम्मप्पडिबोहे समथिओ पढमपत्थावो । पृ० २६७ जिनधर्मप्रतिबोधे प्रस्तावः पञ्चमः प्रोक्तः । पृ० २९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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