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________________ सके ऐसा है। इस चरित के प्रारम्भ और अन्तिम उल्लेख से ज्ञात होता है कि सोमतिलकसूरि की यह रचना, उनके किसी अन्य बृहद् ग्रन्थ के अन्तर्भूत ग्रथित की गई प्रतीत होती है । इनके बनाये हुए षड्दर्शनसमुच्चयलघुवृत्ति, सम्यक्त्वसप्ततिकावृत्ति आदि कई ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । त्रिपुराभारतीलघुस्तव पर भी इनकी बनाई हुई एक संस्कृत टीका है जिसको हम राजस्थान पुरातनग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित कर रहे हैं । इसकी रचना वि० सं० १३९७ में पूर्ण हुई है अतः विक्रम के १४वें शतक का अन्तिमकाल, प्रस्तुत कुमारपालदेव चरित का समय सुनिश्चित हो सकता है। वि० सं० १५१२ में लिखी गई प्राचीन एवं आदर्शभूत प्रति के आधार पर इसका सम्पादन किया गया है। प्रत्यन्तर के रूप में एक दूसरी प्रतिका भी उपयोग किया गया है जो मुनिवर श्रीपुण्यविजयजी की कृपा से प्राप्त हुई थी। यह प्रति भी वैसी पुरातन और शुद्धप्रायः थी। यह चरित भी, दूसरे दूसरे चरित्रों की अपेक्षा संक्षिप्त ही है। इसके कुल ७४० श्लोक हैं जिनमें प्रारम्भ के २०० श्लोकों में तो वही, कुमारपाल के राज्य प्राप्त करने के पूर्वका, जीवन वर्णित है और प्रायः उन्हीं शब्दों में है-जो उपर्युक्त प्रथमांक वाले संक्षिप्त चरित्र में वर्णित है । बाद के ५०० श्लोकों में, कुमारपाल के राजजीवन का वर्णन है जिसमें प्रायः उन सब मुख्य मुख्य प्रबन्धों का सार दिया गया है जो प्रभावकचरित्र, प्रबन्धचिन्तामणि और प्रबन्धकोष आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है । पर कोई कोई बात बिल्कुल नई भी इसमें मिलती है। दृष्टान्त के लिये, ६८-७०वें पृष्ठ पर श्लोक ६१२ से लेकर ६३३ तक में, नागपुर (मारवाड का आधुनिक नागोर) के जिस महामाण्डलिक कुमार के साथ कुमारपाल के युद्ध का उल्लेख है वह और किसी प्रबन्ध में देखने में नहीं आया । इसी तरह पृ० ७३-७४ पर, श्लोक ६७४ से लेकर ६८४ तक में, राकापक्षीय आचार्य सुमतिसूरि के साथ हेमाचार्य का जो प्रसंग बतलाया गया है वह भी एक विशिष्ट प्रकार का नवीन वृत्तान्त है । इसका थोड़ा सा सूचन सिर्फ चतुरशीति प्रबन्धान्तर्गत कुमारपालप्रबन्ध में मिलता है [देखो, पृ० २४४, 88 ५३ वां प्रकरण] पर, किन्हीं अन्य प्रसिद्ध चरित्रों में नहीं दृष्टिगोचर होता। समुच्चय रूप से यह चरित्र भी बहुत कुछ संबद्ध, व्यवस्थित और तथ्यपूर्ण है। इसका वर्णन क्रमबद्ध होकर थोड़े में कुमारपाल के जीवन का अच्छा परिचय देनेवाला है । मालूम देता है, कि इसकी संकलना मुख्य करके इसके बाद, जो ३ रे अंकवाला बड़ा कुमारपालप्रबोधप्रबन्ध है उसके आधार से की गई है । क्योंकि इसके अन्त के श्लोक में, चरितकार ने स्पष्ट लिखा है कि हमने गूर्जर नरेश कुमारपाल का यह चरित्र संक्षेप में लिखा है । जिनको विशेष रूप से जानने की इच्छा हो वे 'कुमारपालप्रतिबोध' नामक ग्रन्थ से जानें ।' इसमें सूचित किया गया 'कुमारपालप्रतिबोध' ग्रन्थ यही मालूम देता है जो प्रस्तुत संग्रह में इसी चरित के बाद, प्रकाशित है और जिसका पूरा नाम "कुमारपाल प्रबोध (अथवा प्रतिबोध) प्रबन्ध' है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002501
Book TitleKumarpalcharitrasangraha New Publication of Shrutaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year2008
Total Pages426
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size21 MB
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