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पहुंचकर मुकाम किया. पश्चात् दर्शन के निमित्त सब लोग पर्वत पर चढे । उन्होंने श्री ऋषभदेवी की सेवा भक्ति की । सूरदास सेठ भी स्त्री सहित पुत्र को लेकर पर्वत पर चढा और पुत्र को सूर्यकुंड में स्नान कराया, परन्तु वह जल देवता अधिष्ठित था, और स्वयंप्रभ कुमार को अभी बहुत से कर्म भोगना शेष थे, इस कारण से कंड का जल उसके पांवों को स्पर्श तक नहीं करता था, अर्थात् स्पर्श तो करे परंतु कुछ भी पांव पर ठहरता नहीं जैसे चिकटे भाजन पर पानी नहीं ठेर सकता है.
यह देख कर सर्व संघ के मनुष्य चकित हुए, और मुनिराज के पास जा वंदन करके इसका विचार पूछने लगे । मुनीश्वर ने कहा कि इसने पूर्व भव में बहुत देवद्रव्य खाया है, और एक मृगी के चारों पांव छेदे हैं. उनमें से बहुत से कर्मो का तो अकाम निर्जरा से क्षय होगया है, और स्वल्प शेष है, परन्तु वे शेष कर्म निकाचित-चीठे हैं, इससे बिना भोगे उनको इस का छुटकारा होने का नहीं. इसी कारण से तीर्थजल इसको स्पर्श नहीं करता है।