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अधिक प्रसिद्ध हुए हैं। एक देवद्धिगणी-क्षमाश्रमण इनसे भी पहले हुए हैं, वे काश्यप गोत्री नहीं, बल्कि माठरगोत्री हुए हैं, ऐसा कल्पसूत्र की स्थविरावलि में स्पष्ट उल्लेख है । - काश्यपगोत्री देवद्धिगणी-क्षमाश्रमणजी अपने युग के महान युगप्रवर्तक, विचारशील, दीर्घदर्शी, जिन प्रवचन के अनन्य श्रद्धालु, श्रीसंघ के अधिनायक आचार्य प्रवर हुए हैं। जिन प्रवचन को स्थिर एवं चिरस्थायी रखने के लिए उन्होंने वल्लभीनगर में बहुश्रुत मुनिवरों के एक वृहत्सम्मेलन का आयोजन किया। उस सम्मेलन में आचार्यश्री जी ने सूत्रों को लिपिबद्ध करने के लिए अपनी सम्मति प्रकट की। उन्होंने कहा, बौद्धिक शक्ति प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है । यदि हम आगमों को लिपिबद्ध नहीं करेंगे, तो वह समय दूर नहीं है, जबकि समस्त आगम लुप्त हो जाएंगे। आगमों के अभाव होने पर तीर्थ का व्यवच्छेद होना अनिवार्य है, क्योंकि कारण के अभाव होने पर कार्य का अभाव भी अनिवार्य है।
___आचार्य प्रवर के इस प्रस्ताव से अधिकतर मुनिवर सहमत हो गए, किन्तु कतिपय निर्ग्रन्थ इस प्रस्ताव से सहमत नहीं हुए। क्योंकि उन का यह कथन था, यदि गगमों को लिपिबद्ध किया गया तो निर्गन्थ श्रमणवरों में आरम्भ और परिग्रह की प्रवृति का बढ़ जाना सहज है । दूसरा कारण उन्होंने यह भी बतलाया कि यदि आगमों का लिपिबद्ध करना उचित होता, तो गणधरों के होते हुए ही आगमलिपिबद्ध हो जाते, वे चतुर्ज्ञानी, चतुर्दश पूर्वधर थे। उन्होंने भी अपने ज्ञान में यही देखा कि आगमों को लिपिबद्ध करने से आरम्भ और परिग्रह तथा आशातना आदि दोषों को जन्म देना है । अतः उक्त दोषों को लक्ष्य में रखकर, उन्होंने आगमों को लिपिबद्ध करने तथा कराने की चेष्ठा नहीं की। हमें भी उन्हीं के पदचिन्हों पर ही चलना चाहिए, विरुद्ध नहीं, इतना कहकर वे मौन होगए।
इस का उत्तर देते हुए देवद्धिगणी ने कहा- यह ठीक है कि आगमों को लिपिबद्ध करने से अनेक दोषों का उद्भव होना अनिवार्य है और श्रमण निर्ग्रन्थ उन दोषों से अच्छूते नहीं रह सकेंगे। यदि श्रुतज्ञान का सर्वथा विच्छेद हो गया, तो श्रमण निर्ग्रन्थ कहां रह सकेंगे ? "मूलं नास्ति कुतः शाखा" तीर्थ का अस्तित्व जिनप्रवचन पर ही निर्भर है। जड़ें नष्ट व शुष्क हो जाने पर वृक्ष हरा भरा कहां रह सकता है, कहा भी है—“सर्वं नाशे समुत्पन्नेऽधं त्यजति पण्डितः" इस उक्ति को लक्ष्य में रखते हुए समयानुसार आगमों का लिपिबद्ध करना ही सर्वथा उचित है।
गणधरों के युग में मुनिपुङ्गवों की धारणाशक्ति बड़ी प्रबल थी, बुद्धि स्वच्छ एवं निर्मल थी, हृदय निष्कलंक एवं ऋजु था, श्रद्धा की प्रबलता थी इस कारण उन्हें पुस्तकों की आवश्यकता ही नहीं रहती थी। स्मरण शक्ति की प्रबलता से वे आगमों को कण्ठस्थ करते थे। उन में विस्मति का दोष नहीं पाया जाता था। इस लिए उन्हें आगमों को लिपिबद्ध करने की कभी उपयोगिता अनुभव नहीं हुई। इस कारण उन्होंने आगमों को लिपिबद्ध नहीं किया । आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है । इस प्रकार क्षमाश्रमण जी ने असहमत मुनिवरों को कथंचित् सहमत किया।
तत्पश्चात् जिन बहुश्रुत मुनियों के जो-जो आगम कण्ठस्थ थे, उन्हें प्रामाणिकता से लिखना प्रारम्भ किया। लिखने के अनन्तर जो-जो प्रतियां परस्पर मिलती गई, उन्हें प्रमाण रूप से स्वीकार कर लिया गया, जहां-जहां कहीं पाठ-भेद देखा, उन-उन पाठों को पाठान्तर के रूप में रखते गए। इस प्रकार उन्होंने शेषावशेष आगमों को संकलन सहित लिपिबद्ध किया। फिर भी बहुत कुछ आगम विस्मृति दोष से व्यवच्छिन्न हो गए और आचाराङ्ग सूत्र का महापरिज्ञा नामक सातवां अध्ययन सर्वथा लुप्त हो गया।
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