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नन्दी इत्यादि आगमों पर महत्त्वपूर्ण दार्शनिक शैली से व्याख्याएं लिखीं। नन्दीसूत्र पर जो व्याख्या लिखी है, वह भी विशेष पठनीय है। आपकी अभिरुचि अधिकतर आगमों की ओर ही रही है । आप वृत्तिकार ही नहीं, भाष्यकार भी हुए हैं, आप जैन संस्कारों से सुसंस्कृत थे । आपने नन्दीसूत्र पर जो वृहत् वृत्ति लिखी है, उसका ग्रन्थाग्र ७७३२ श्लोक परिमाण है ।
नन्दीसत्र पर चन्द्रसूरिजी ने भी ३००० श्लोक परिमाण टिप्पणी लिखी है। यदि किसी जिज्ञासु ने नन्दीसूत्र के विषय को स्पष्ट रूपेण समझना हो, तो उसके लिए विशेषावश्यक भाष्य अधिक उपयोगी है । इसके रचयिता जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण हए हैं। उनका समय ईसवी सन् ६०६ का वर्ष निश्चित होता है। भाष्य प्राकृत गाथाओं में रचा गया है। गाथाओं की संख्या लगभग ३६०० है। यह आगमों एवं दर्शनों की कुञ्जी है। इसे जैन सिद्धान्त का महाकोष यदि कहा जाए तो कोई अनुचित न होगा। इसमें नन्दी और अनुयोगद्वार दोनों सूत्रों का विस्तृत विवेचन है । “करेमि भन्ते ! सामाइयं" इस पाठ की व्याख्या को लेकर विषय प्रारंभ किया और इसी के साथ विशेषावश्यक भाष्य समाप्त हुआ। इसके अध्ययन करने से पूर्व आगमों का, वृतियों का, वैदिकदर्शन, बौद्धदर्शन, चार्वाकदर्शन का परिज्ञान होना आवश्यकीय है । भाषा सुगम है और भाव गंभीर हैं । प्रभा टीका
नन्दीसूत्र पर एक जनेतर विद्वान् ने संस्कृत विवृत्ति लिखी है, जिसका नाम प्रभा है । वस्तुतः यह वृत्ति मलयगिरि कृत विवृत्ति को स्पष्ट करने के लिए रची गई है। बीकानेर में ज्ञानभंडार के संस्थापक यतिवर्य्य हितवल्लभ की शूभ प्रेरणा से पं० जयदयालजी. (जो कि संस्कृत प्रधान अध्यापक श्री दरबार हाई स्कूल बीकानेर) ने लिखी वह १५६ पन्नों में लिखित है। उसकी प्रेस कॉपी अगर चन्द नाहटाजी के भण्डार में निहित है। यह वृत्ति वि० सं० १९५८ के वैशाख शुक्ला तृतीया में लिखी गई।
- पूज्यपाद आचार्य प्रवर श्री आत्माराम जी म० ने प्रस्तुत नन्दीसूत्र की देवनागरी में विशद . व्याख्या २० वर्ष पूर्व लिखी थी, उस समय पूज्य श्री जी उपाध्याय पद का सुशोभित कर रहे थे। वि० सं०
२००२ वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को नन्दीसूत्र का लेखन कार्य पूर्ण किया। अभी तक नन्दीसूत्र पर जितनी हिन्दी टीकाएं उपलब्ध हैं, उन सब में यह व्याख्या विशद, सुगम, सुबोध एवं विस्तृत होने से अद्वितीय है। इन सब रचनाओं से नन्दीसूत्र की उपयोगिता स्वयंसिद्ध है। देववाचकजी का संक्षिप्त परिचय
देववाचकजी सौराष्ट्र प्रदेश के एक क्षत्रिय कुल मुकुट, काश्यप गोत्री मुनिसत्तम हुए हैं। जिन्होंने आचारांग आदि ग्यारह अंग सूत्रों के अतिरिक्त दो पूर्वो का अध्ययन भी किया। अध्ययन कला वृहस्पति के तुल्य होने से श्रीसंघ ने कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए देववाचक पद से विभूषित किया। इनका माता-पिता ने क्या नाम रखा था ? यह अभी खोज का विषय है। नन्दीसूत्र का संकलन या रचना करने वाले देववाचकजी हुए हैं । वे ही आगे चलकर समयान्तरमें दूष्यगणी के पट्टधरगणी हुए हैं अर्थात् उपधयाय से आचार्य बने हैं । दैवी संपत्ति व आध्यात्मिक ऋद्धि से समृद्ध होने के कारण देवद्धि गणी के नाम से ख्यात हुए हैं । तत्कालीन श्रमणों की अपेक्षा क्षमाप्रधान श्रमण होने से देवद्धिगणी-क्षमाश्रमण के ने
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