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________________ === यह जिन शासन भस्म राशि महाग्रह के प्रभाव से अनेक विकट परिस्थितियों का सामना करते हए, दैविक और भौतिक संकटों को झेलते हए बड़े-बड़े मिथ्यादृषि एवं अज्ञानियों के द्वारा अन्धाधुन्ध प्रहारों से अपने आप को बचाते हुए, मन्थर गति से चलता ही रहा । दो हजार वर्ष के मध्यकाल में बहुत से आगमों का तथा अध्ययनों का व्यवच्छेद हो गया। इस समय अवशिष्ट आगम ही भावतीर्थ के मूलाधार हैं। २. हुण्डावसर्पिणी अनन्तकाल के बाद. हुण्ड अवसर्पिणी का चक्र आता है । इस हुण्ड अवसर्पिणी काल में दस अच्छेरे हुए, जिनका अवतरण अनन्त काल के बाद हुआ है । जब तीसरे और चौथे आरे में दस अच्छेरे हुए, तब पंचम आरे में हुण्ड अवसर्पिणी काल का कोई दुष्प्रभाव न पड़े, यह कैसे हो सकता है। इस काल में असंयतों का मान, सम्मान, आदर-सत्कार, पूजा-प्रतिष्ठा, बोलबाला अधिक रहा है और संयतों का बहुत ही कम ।' जिस राज्य में जाली सिक्के का दोर-दौरा अधिक बढ़ जाए और असली सिक्के का कम, उस राज्य की स्थिति जैसे डांवाडोल हो जाती है, वैसे ही इस काल का स्वभाव समझना चाहिए। यह काल भी आगमव्यवच्छेद होने में कारण रहा है। ३. दुर्भिक्ष का प्रकोप दुभिक्ष, कहत, अन्न-अभाव, दुष्काल ये सब एक ही अर्थ के वाची है । जब भिक्षु को भिक्षा मिलनी दुर्लभ हो जाए, उसे दुर्भिक्ष कहते हैं । जैन भिक्षु बयालीस दोष टालकर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करते हैं, वे सदोष - भिक्षा मिलने पर भी नहीं ग्रहण करते । निर्दोष भिक्षा भी अभिग्रह फलने पर ही लेते हैं, अन्यथा नहीं । वि० सं० प्रारम्भ होने से पूर्व ही दुष्काल पड़ने लग गए । एक दुष्काल व्यापक रूप से १२ वर्षी और दूसरा ७ वर्ष पर्यन्त इत्यादि अनेक बार छोटे-बड़े दुष्काल पड़े । परिणामस्वरूप दुष्काल में निर्दोष भिक्षा न मिलने से बहुत से मुनिवर आगमों का अध्ययन तथा वाचना विधिपूर्वक न ले सके और न दे सके। इस कारण आगमधर मुनिवरों के स्वर्ग-सिधारने से आगमों का पठन-पाठन कम हो गया और कुछ अप्रमत्त आगमधर जैसे-तैसे इतस्तत: परिभ्रमण करके जीवन निर्वाह करते रहे तथा आगमवाचना भी यथातथा चालू रखी। कण्ठस्थ आगम ज्ञान कुछ २ विस्मृत भी हो गया, कुछ स्थल बीच-बीच में शिथिल हो गए, फिर भी यथा समय प्रामाणिकता से आगमों का पुनरुद्धार आगमधर करते ही रहे । ४. धारणा शक्ति की दुर्बलता जहां तक चौदह पूर्वो का ज्ञान धारणा शक्ति की दुर्बलता से क्षीण होते-होते दस पूर्वो का ज्ञान . रह गया, वहां तक तो ११ अङ्ग सूत्रों की वाचनाओं का आदान-प्रदान अविच्छिन्नरूप से होता रहा । तत्पश्चात् जैसे २ पूर्वो के सीखने-सीखाने का क्रम कम होता रहा, वैसे-वैसे ११ अङ्ग सूत्रों का भी। क्योंकि उस समय आगम लिखित रूप में नहीं थे, कण्ठस्थ सीखने-सिखाने की परिपाटी चली आ रही थी। जब तक धारणा शक्ति की प्रबलता थी, तब तक आगमों को कण्ठस्थ करने की और कोष्ठबुद्धि में सुरक्षित रखने की पद्धति चली आ रही थी। आगमों का लिखना बिल्कुल निषिद्ध था। यदि किसी ने एक गाथा भी लिखी तो वह प्रायश्चित्त का भागी बनता था, क्योंकि वे लिखना आरम्भ-परिग्रह तथा जिनवाणी की अवहेलना समझते थे, वे ज्ञानी होते हुए निग्रंथ थे । आवश्यकीय अत्यल्प वस्त्र व पात्र के अतिरिक्त और अपने पास कुछ भी । नहीं रखते थे, उनकी दोनों समय देख-भाल भी करते थे। जैसे कोल्हू में कोई जीव पड़ जाए, तो उसका
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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