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________________ पूह चना बहुत कठिन होता है, वैसे ही पुस्तक में कोई जीव उत्पन्न हो जाए या प्रविष्ट हो जाए तो उसकी प्रतिलेखना करनी कठिन होती है, उससे जीव-जन्तुओं की हिंसा के भय से और परिग्रह बढ जाने से, निष्परिग्रह व्रत दूषित हो जाएगा, इस भय से पुस्तक जहां तहां रखने से आगमों की आशातना के भय से लिखने की पद्धति उन्होंने चालू ही नहीं की । ज्यों २ धारणा शक्ति का ह्रास होता गया, त्यों २ निर्ग्रथ भी सग्रन्थ होते गए और आगमों को लिपिबद्ध करने का आविष्कार होने लगा। पहले विद्या कण्ठस्थ होती थी, आजकल पुस्तकों में रह गई है । यह धारणा शक्ति के ह्रास का परिणाम है । ५. आगम सीखने वालों की अल्पता कुछ साधु पिछली आयु में दीक्षित हुए हैं। अतः वे सीखने में समर्थ न हो सके। कुछ तप में संलग्न रहते, कुछ ग्लान तथा स्थविरों की सेवा में संलग्न रहते, किसी में अधिक सीखने की अरुचि पाई जाती थी, कोई बुद्धि की मन्दता से जितना चाहता, उतना ग्रहण नहीं कर सकता था । लघुवयस्क, कुशाग्र बुद्धि गम्भीर, आगमज्ञान सीखने में अधिक रुचि वाला, प्रमाद तथा विकथाओं से निवृत्त, नीरोगकाय, एवं दीर्घाशुष्क आत्मा, निश्चय ही आगम वेत्ता बन सकता है, ऐसे होनहार मुनिवरों की न्यूनता, पूर्वी तथा अन्य आगमों के व्यवच्छेद में कारण बने । ६. सम्प्रदायवाद का उद्गम जो संघ पहले एक धारा के रूप में बह रहा था, उसकी दो धाराएं वीर नि० सं० ६०६ के वर्ष में बन गईं । आर्यकृष्ण के शिष्य शिवभूति ने दिगम्बरत्व की बुनियाद डाली । जो स्थविरकल्पी थे, वे श्वेताम्बर कहलाए, जो पहले कभी जिनकल्पी थे, वे अपने आपको दिगम्बर कहलाने लगे। संघ का बटवारा हो जाने से पारस्परिक विद्वेष, निन्दा एवं पैशुन्य बढ जाने से सहधर्मी वत्सलता के स्थान में कलह ने अपना अड्डा बना लिया। संप्रदाय के संघर्ष से भी संघ को बहुत हानि उठानी पड़ी। ऐसे अनेकों ही कारण बन गए, हो सकता है इनके अतिरिक्त आगमों के ह्रास में अन्य भी अज्ञात कारण हों, क्योंकि जहां हृदय में वक्रता और बुद्धि में जढ़ता हो, वहां संघ में सुव्यवस्था नहीं रह सकती । अनधिकारी की महत्त्वाकांक्षा, प्रवचनप्रभावना की न्यूनता, आज्ञा विरुद्ध प्रवृत्ति, धारणा शक्ति की दुर्बलता, दुष्काल का प्रकोप, हुण्ड - अवसर्पिणी, तथा भस्मराशि महाग्रह का दुष्प्रभाव, विस्मृतिदोष, विक्रया प्रमाद की वृद्धि, भ्रातृत्व, मंत्री और वत्सलता की हीनता आदि अनेक कारणों से दृष्टिवाद सर्वथा तथा यत्किंचिद्रूपेण अङ्ग सूत्रों के अंश भी व्यवच्छिन्न हो गए । कुछ लिपिबद्ध होने के बाद भी आततायियों के युगों में, व्यवच्छिन्न हो गए। यह हैं आगमों के हास के मुख्य-मुख्य कारणं । नन्दीसूत्र का ग्रन्थाग्र और वृत्तियां वर्ण छन्दों में एक अनुष्टुप् श्लोक होता है, जिसमें प्रायः बत्तीस अक्षर होते हैं । ऐसे ७०० अनुष्टुप् श्लोकों के परिमाण जितना नन्दीसूत्रका परिमाण है । यद्यपि इस सूत्र में गद्य की बहुलता है, पद्य तो बहुत ही कम है, तदपि नन्दीजी में जितने अक्षर हैं, यदि उन अक्षरोंके अनुष्टुप् श्लोक बनाए जाएं, तो ७०० बन सकेंगे । इसलिए इस सूत्र का ग्रन्थाग्र ७०० श्लोक परिमाण है । आगमों पर लिखी गई सब से प्राचीन व्याख्या निर्युक्ति है । आगमों पर जितनी नियुक्तियां मिलती
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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