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विधतीर्थ व आगमों की जो शोभा, प्रभावना सुव्यवस्था और विश्वमोहिनी सुरभि, तीर्थंकर, गणधर तथा निर्वाण प्राप्त करने वाले अन्तिम चरमशरीरी पट्टधर आचार्य पर्यन्त होती है, वह कालान्तर में उतनी नहीं रहती। बल्कि प्रतिदिन उसका ह्रास ही होता जाता है । यद्यपि इतनी जल्दी ह्रास नहीं हो सकता, जितनी जल्दी हो गया है, इसके पीछे अनेक विशेष कारण हो सकते हैं, जैसे कि
१भस्मराशि महाग्रह
जैन आगमों में ८८ महाग्रहों के नामोल्लेख स्पष्ट रूप से मिलते हैं। आजकल जो नौ महाग्रह प्रचलित हैं, उन सवका अन्तर्भाव ८८ में ही हो जाता है। नवग्रहों के अतिरिक्त जो शेष ग्रह हैं, उनका
अधिकतर उन पर पड़ता है, जिनकी आयु सैकड़ों, हजारों तथा लाखों वर्ष की हो या इतने काल तक किसी विशिष्ट महामानव की स्थापित संस्था पर अच्छा बरा प्रभाव डालते हैं - जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण हुआ है, निर्वाण होने से पूर्व उसी रात्रि को
भाव वाले भस्मराशि नामक तीसवें महाग्रह का भगवान के जन्म नक्षत्र उत्तराफाल्गनी के साथ . योग लगा। वह महाग्रह दो हजार वर्ष की स्थिति वाला है। क्योंकि एक नक्षत्र पर वह इतने काल तक
ही फल दे सकता है, किन्तु किसी महातेजस्वी के पुण्य प्रभाव से उसका होने वाला बुरा फल निस्तेज एवं . नीरस भी हो जाता है। .
. अन्य किसी समय निर्वाण होने से पूर्व श्रमण भगवान महावीर से शकेन्द्र ने निवेदन किया, भगवन् ! आपके जन्म नक्षत्र पर भस्मराशि महाग्रह संक्रमित होने वाला है। यह महाग्रह आपके द्वारा प्रवृत्त शासन को बहुत हानि पहुंचाएगा। अत: कृपा करके यदि आप अपनी आयु को मात्र दो घड़ी और बढ़ा दें तो आपके शासन पर जो दो हजार वर्ष तक वह अपना कुप्रभाव डालेगा, वह फल नीरस हो जाएगा और आपका शासन चमकता ही रहेगा।
इन्द्र के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा- इन्द्र ! ऐसा कोई समर्थ व्यक्ति न हआ, न है और न होगा-जो अपनी आयु को बढा सके।' इन्द्र ! तुम इतने सशक्त हो जिसकी अखण्डआज्ञा बतीस लाख देवविमानों पर चल रही है, क्या तुम उस भस्म राशि की गति को अवरुद्ध या बदलने में समर्थ हो? इन्द्र ने कहा-भगवन् ! मैं किसी भी ग्रहगति को रोकने या बदलने में समर्थ नहीं हूँ। तब भगवान् ने कहा-मैं दो घड़ी की अपनी आयु को कैसे बढा सकता हूँ ? विश्व का जो अनादि नियम है, उसे बढाने, परिवर्तन करने तथा नष्ट करने की किसी में शक्ति नहीं है । जो कुछ जीव कर सकता है, वही उसके परिवर्तन करने में समर्थ है । उसकी शक्ति से जो कुछ बाहिर है, वह सदा बाहिर ही है। .
यह उत्तर सुनकर इन्द्र ने विचार किया-भगवान् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं, जो कुछ इन्होंने अपने ज्ञान में जाना और देखा है, वह सदा सत्य है, निश्चित है, जो कुछ हो सकता है, वह जीव के प्रयोग से हो सकता है और जो नहीं हो सकता, वह तीन काल में भी नहीं हो सकता । इन्द्र को इस रहस्य का ज्ञान हआ। जो इन्द्र ने निवेदन किया था, उसका ज्ञान भगवान को पहले से ही था।
१. स्थानाङ्ग सूत्र स्था०२, उ०३। १. कल्पसूत्र व्याख्यान छठा ।