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आगमों का ह्रास कैसे हुआ
जैनधर्म सदाकाल से क्रान्ति, विकास उन्नति एवं उत्थान का ही द्योतक तथा प्रेरक रहा है । आत्मा का अपने स्वरूप एवं स्वभाव में अवस्थित होने को ही जैन धर्म कहते हैं। प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं, एक बाह्य और दूसरा आभ्यन्तर । इसमें से दूसरे पहलू का उल्लेख तो वणित हो चुका है, किन्तु धर्म का बाह्य पहलू क्या है ? इसका उल्लेख करना भी अनिवार्य है । जो व्यावहारिक धर्म निश्चयपूर्वक है, वह भी धर्म का एक मुख्य अंग है, किन्तु निश्चय के अभाव में व्यावहारिक धर्म केवल मिथ्यात्व है। उपादानकारण तैयार होने पर ही निमित्त कारण सहयोगी हो सकता है। उपादान के बिना केवल निमित्त कोई महत्त्व नहीं रखता । इसी प्रकार आत्मस्वरूप में अवस्थित होने के जो बाह्य निमित्त हैं, साधना काल में उनकी भी परम आवश्यकता है । जब तक आत्मा की सिद्धावस्था नहीं हो जाती, तब तक बाह्य निमित्त' की भी आवश्यकता रहती है। जैसे विद्यार्थी को पुस्तक की रक्षा करना अनिवार्य हो जाता है, वैसे ही मुमुक्षुओं के लिए जिन-शासन, निर्ग्रन्थ प्रवचन और सद्गुरु ये तीन बाह्य साधन भी परम आवश्यक हैं। इनकी उन्नति व रक्षा करने में अनेक महामानवों ने अपने अपने युग में पूरा-पूरा सहयोग दिया है और वे मुक्तिपथ के पथिक बने।
इस जिन शासनरूप नन्दनवन को तीर्थंकर, श्रुतकेवली, गणधर, आचार्यप्रवर, साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविकाओं ने यथाशक्ति, यथासम्भव उत्साह, स्थिरीकरण, उववूह, प्रवचन प्रभावना, सहधर्मीवत्सलता एवं श्रद्धारूपी जल से तन, मन, धन के द्वारा सींच-सींचकर समृद्ध बनाया। इसी कारण यह समस्तं लोक को अपने दिव्य सौरभ्य से अक्षुण्ण एवं अनवरत सुरभित कर रहा है । यद्यपि यह जिनशासन सर्वप्राणियों का हितैषी है, इसमें किसी भी प्राणी का अहित निहित नहीं है। तदपि यह सम्यग्दृष्टि, संयमी
और विवेकी जीवों के लिए अधिक मनभावन तथा शान्तिप्रद है। मिथ्यादृष्टि एवं भ्रष्टाचारी जीवों को यह लहलहाता हुआ नन्दन वन भी अखरता ही है, केवल अखरता ही नहीं, इसे उजाड़ने के लिए उन्होंने भरसक प्रयत्न भी किए, परिणाम स्वरूप वे स्वयं मिट गए, इसे नहीं मिटा सके । जैसे सूर्य पर थूकने से वह थूक वापिस थूकने वाले के मुँह पर ही आ गिरता है, वैसे ही उनके द्वारा किए गए कुप्रयत्नों का दुष्परिणाम स्वतः उन्हीं को भोगना पड़ा । यह जिन शासनरूपी गन्धहस्ती अपनी मस्त चाल से आज भी चल रहा है। कहीं-कहीं मिथ्यादृष्टि अज्ञानी इसके पीछे मिथ्या प्रलाप करते हैं, किन्तु वह न भयभीत होता है और न भागता ही है, अपितु विश्व में सदा अप्रतिम ही रहा है।
जिन शासन का उद्देश्य किसी सम्प्रदाय, आश्रम, वर्ण, जाति आदि को दबाने का तथा नष्ट-भ्रष्ट करने का नहीं रहा, न है और न रहेगा, यह विशेषता इसी में है, अन्य किसी शासन में नहीं । क्योंकि इसका अनेकान्तवाद बौद्धिक मतभेद को मिटाता है । जो इसकी अहिंसा है, वह विश्वमैत्री सिखाती है । इसका अपरिग्रहवाद (अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह करना) जनता, देश व राष्ट्र में विषमता के स्थान पर समता सीखाता है। इसका सत्य आत्मा को परमात्मत्व की ओर प्रगति करने के लिए अपूर्व एवं अद्भुत शक्ति प्रदान करता है । अखण्ड सत्यालोक में सर्वदा निवास करना ही परमात्मतत्व है। ऐसी अनेक दृष्टियों से यह जिन शासन पूर्ण सुख और असीम शान्तिप्रद है।
जैसे शरद्, हिमन्त और शिशिर ऋतुओं का क्रमशः सम्राज्य छा जाने पर शाही उद्यान में वह शोभा, सौन्दर्य एवं सौरभ्य नहीं रहता जो कि वसन्त ऋतु में हो सकता है। वैसे ही जिनशासन, चतु