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कुछ विशिष्टतम संयत तो बिना ही वाचना लिए, बिना ही अध्ययन किए पूर्वधर हो जाते हैं, जैसे कि पोट्टिलदेव ने तेतलीपुत्र महामात्य को मोह के दलदल में फंसे हुए को परोक्ष तथा प्रत्यक्ष रूप में प्रतिबोध देकर उसकी अन्तरात्मा को जगाया है। उसके परिणाम स्वरूप तेतलीपुत्र ने ऊहापोह किया, मोहकर्म के उपशान्त हो जाने से मतिज्ञानावरणीय के विशिष्ट क्षयोपशम से महामात्य को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उससे उन्होंने जाना कि मैं पूर्व भव में महाविदेह क्षेत्र, उसमें पुष्कलावती विजय, उसमें भी पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म नामा राजा था। चिरकाल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग करके स्थविरों के पास जिनदीक्षा धारण की, संयम तप की आराधना करते हुए १४ पूर्वो का ज्ञान भी प्राप्त किया, चिरकाल तक संयम की पर्याय पालकर आयु के मासावशेष रहने पर अपच्छिम मारणंतिक संलेखना की, आयु के अंतिम क्षण में समाधिपूर्वक काल करके महाशुक्र (७) देवलोक में. देव के रूप में उत्पन्न हुआ, वहां की दीर्घ आयु समाप्त होने पर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ हूं।
पूर्वभव में मैंने महाव्रतों की आराधना जिस रूप में की, उसी प्रकार अप्रमत्त होकर आत्मसाधना में संलग्न रहना चाहिए, इसी में मेरा कल्याण है। उस जातिस्मरण ज्ञान के सहयोग से उस प्रमदवन में बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह का सर्वथा परित्याग कर तेतलीपुत्र स्वयमेव दीक्षित होकर, जहाँ उस वन में अशोक वृक्ष था, वहां पहुंचे और शिलापट्टक पर बैठकर समाधि में तल्लीन हो गए। फिर उस जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा अनुप्रेक्षा करते हुए पूर्वभव में कृत अध्ययन आदि का पुनः पुनः चिन्तन करने लगे। इस प्रकार विचार करते करते अङ्गसूत्रों तथा चौदह पूर्वो का ज्ञान उत्पन्न हो गया, तव उस श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा जगमगा उठी, कर्ममल को सर्वथा भस्मसात् करने वाले अपूर्वकरण में प्रविष्ट हुए, घनघाति कर्मों को प्रनष्ट करके तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश करते ही केवल ज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। जातिस्मरण ज्ञान से संयम ग्रहण किया, - संयम से चौदह पूर्वो का ज्ञान उत्पन्न हुआ, उससे क्षपकश्रेणि में आरूढ़ हुए और तेतलीपुत्र को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इस प्रकार कारण कार्य बनता है । चौदह पूर्वो का ज्ञान उपयुक्त ढंग से भी हो सकता है। पद परिभाषा - प्रत्यक्ष प्रमाण में जितना सुस्पष्ट और विशद केवलज्ञान है, उतना अवधि और मनःपर्यवज्ञान नहीं । परोक्ष प्रमाण में श्रुतज्ञान जितना विशद है, मतिज्ञान उतना नहीं। श्रुतज्ञान का अन्तर्भाव पूर्णतया द्वादशाङ्गगणिपिटक में हो जाता है, उससे कोई भी श्रुतज्ञान बाहिर नहीं रह जाता है। आगमों में जो पद गणना की गई है, उसके विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बरों में मत भेद है, यदि हम अनेकान्तवाद की साक्षी से काम लें. तो वास्तव में मतभेद है ही नहीं, विचारधारा को न समझने से ही मतभेद प्रतीत होता है।
पद शब्द अनेकार्थक है, जैसे कि अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद । यहां संक्षेप रूप से इनकी व्याख्या की जाती है, जैसे कि-व्याकरण में 'सुप्तिङन्तं पदम्, अर्थात विभक्ति सहित शब्द को पद कहते हैं।
१. ज्ञाताधर्म कथा १४ वां अध्ययन