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________________ । ज्ञान उत्पन्न होजाए, वह गणधर पद को प्राप्त करता है, जिन को सविशेष चिन्तन करने पर भी दृष्टिवाद का ज्ञान नहीं हुआ, एक परिकर्म का या एक पूर्व का ज्ञान भी नहीं हुआ, वे गणधर पद के अयोग्य होते हैं । गणधर बनने के बाद ही गणव्यवस्था चालू होती है। वे सब से पहले प्राचारः प्रथमो धर्मः की उक्ति को लक्ष्य में रखकर आचाराङ्ग तत्पश्चात् सूत्रकृताङ्ग इस क्रम से ग्यारह अङ्ग पढ़ाते हैं। श्रमण या श्रमणी वर्ग का उद्देश्य न केवल पढ़ने का ही होता है, साथ-साथ संयम और तप की आराधना-साधना का भी होता है। कुछ एक साधक तो अधिक से अधिक ११ अङ्ग सूत्रों का अध्ययन करके ही आत्म-विजय प्राप्त कर लेते हैं । उस संयम-तप पूर्वक अध्ययन का अन्तिम परिणाम केवलज्ञान होने का या देवलोक में देवत्वपद प्राप्त करने का ही होता है। . कुछ विशिष्ट प्रतिभाशाली साधक गणधरों से ११ अङ्ग सूत्रों का अध्ययन करने के बाद दृष्टिवाद का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं । वे पहले परिकर्म का अध्ययन करते हैं, फिर सूत्रगत का, तत्पश्चात् पूर्वी का अध्ययन प्रारंभ करते हैं, कोई एक पूर्व का, कोई दो पूर्वो का ज्ञाता होता है। इस प्रकार प्रतिपूर्ण दशपूर्व से लेकर १४ पूर्वो का ज्ञाता होता है, तत्पश्चात् चूलिका का अध्ययन करता है। जब प्रतिपूर्ण द्वादशाङ्ग गणिपिटक का वेत्ता हो जाता है, तब निश्चय ही वह उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है । यह एक निश्चित सिद्धांत है । श्रुतज्ञान की प्रतिपूर्णता हुई और अप्रतिपाति बना । प्रतिपूर्ण द्वादशाङ्ग गणिपिटक का अध्ययन चरमशरीरी ही कर सकता है, अपूर्णता में अप्रतिपाति होने की भजना है । कतिपय उसी भव में मिथ्यात्व के उदय होने पर प्रतिपाति हो जाते हैं। आहारकलब्धि नियमेन चतुर्दश पूर्वधर को ही होती है, किन्तु सभी चतुर्दश पूर्वधर आहारकलब्धि वाले होते हैं ऐसा होना नियम नहीं है । चार ज्ञान के धरता' और आहारकलब्धि सम्पन्न प्रतिपाति होकर अनन्त जीव निगोद में भव भ्रमण कर रहे हैं । इस से ज्ञात होता है कि अनन्तगुणा हीन और अनन्तभागहीन चतुर्दशपूर्वधर को भी आहारकलब्धि हो सकती है । इस प्रकार के ज्ञानतपस्वी भी मिथ्यात्व के उदय से नरक और निगोद में भव भ्रमण कर सकते हैं, किन्तु अनन्तगुणा अधिक और अनन्तभाग अधिक प्रायः अप्रतिपाति होते हैं। शेष मध्यम श्रेणी वाले जीव चरमशरीरी हों और न भी हों, किन्तु वे दुर्गति में भ्रमण नहीं करते । अपितु कर्म शेष रहने पर कल्पोपपन्न और कल्पातीत कहीं भी महद्धिक देवता बन सकते हैं। मनुष्य और देवगति के अतिरिक्त अन्य किसी गति में जन्म नहीं लेते, जबतक सिद्धत्व प्राप्त न करलें। जैसे एक ही विषय में १०० छात्रों ने एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सब के अङ्क और श्रेणि तुल्य नहीं होती। उनमें एक वह है, जो प्रथम श्रेणि में भी सर्वप्रथम रहा । उसके लिए राजकीय उच्चतम विभागों में सर्वप्रथम स्थान है। दूसरा वह है, जिसने केवल उत्तीर्ण होने योग्य ही अङ्क प्राप्त किए हैं तथा निम्न श्रेणि वाले को राजकीय विभागों में स्थान भी निम्न ही मिलता है, शेष सब मध्यम श्रेणि के माने जाते हैं। वैसे ही जितने पूर्वधरहोते हैं, उनमें परस्पर षाड्गुण्य हानि-वृद्धि पाई जाती है । सब में श्रुतज्ञान समान नहीं होता । जो जीव अचरम शरीरी हैं, वे बारहवें अङ्ग का अध्ययन प्रतिपूर्ण नहीं कर सकते । गणधर के अतिरिक्त शेष मुनिवर त्रिपदी से नहीं, अध्ययन करने से दृष्टिवाद के वेत्ता हो सकते हैं। १. देखो सर्वजीवामिगम ७ वीं प्रतिपत्ति तथा भगवती सू० श० २४, १ । २. देखो-प्रशापना सूत्र, ३४ वा पद, वणस्सइ काझ्याणं भंते ! केवड्या आहारग समुग्याया अतीता ? गोयमा ! अयंता ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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