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________________ १० ११ १२ १३ १४ ३० २० १५ १२ १३ ३० २५ २२५ ४०० ६०० ३०० २०० २०० २०० २०० ५७०० १ करोड़, ८० हजार ८४ लाख १ करोड़, १० लाख २६ करोड़ १ करोड़, ५६ लाख ६ करोड़ १२ करोड़, ५० लाख ८३२६८०००५ ३४ १४ पूर्वी के नामों में श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों संप्रदायों में कोई विशेष भेद नहीं है, सिर्फ अवंभं के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में कल्याणवादपूर्व कहा है । अवभं का जो अर्थ वृत्तिकार ने अवन्ध्यं अर्थात् सफल कहां है, वह कल्याण के शब्दार्थ के निकट पहुंच जाता है । ६ वें वें, हवें, ११वें १२वें, १३वें, और १४वें, इन ७ पूर्वी के अंतर्गत वस्तुओं की संख्या में दोनों संप्रदायों में मत भेद है, शेष पूर्वो की वस्तु संख्या में कोई भेद नहीं है । जिज्ञासुओं की जानकारी के लिए उनकी संख्या भी प्रदर्शित करते हैं। छठे पूर्व में १२ वस्तु, ८वें में २०, 8वें में ३०, और शेष ११वें से लेकर १४वें तक प्रत्येक में १०-१० वस्तु हैं । उन्होंने कुल वस्तुओं की जोड़ १६५ बताई है, जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार वस्तुओं की कुल संख्या २२५ होती है । प्राभृतों की . संख्या षट्खण्डागम से ली गई है, पद संख्या नन्दी सूत्र की वृत्ति में ही लिखी हुई है । दृष्टिवाद के प्रकरण में प्राभृतों का उल्लेख मूल में ही है। इसलिए उन की संख्या उक्त तालिका में दी है । पूर्वों का ज्ञान कैसे होता है ? दृष्टिवाद श्रुतज्ञान का रत्नाकर है । दृष्टिवाद श्रुतज्ञान का महाप्रकाश है, चोदह पूर्वी का ज्ञान इसी में निविष्ट है । पूर्वों का या दृष्टिवाद का ज्ञान कैसे होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि पूर्वो का ज्ञान तीन प्रकार से होता है -१ जब किसी विशिष्ट जीव के तीर्थंकर नाम गोत्र का उदय होता है । ( वह केवल ज्ञान होने पर ही उदय होता है छद्मस्थकाल में नहीं, यह कथन निश्चय दृष्टि से समझना चाहिए न कि व्यवहार दृष्टि से ) तब तीर्थ की स्थापना होती है, "तीर्थ" प्रवचन, गणधर और चतुर्विध श्रीसंघ को कहते हैं । केवलज्ञान उत्पन्न होने पर अरिहंत भगवान प्रवचन करते हैं । उस प्रवचन से प्रभावित होकर जो विशिष्ट वेत्ता, कर्मठयोगी दीक्षित होते हैं, वे गणधर पद प्राप्त करते हैं। वे ही चतुर्विधश्रीसंघ की व्यवस्था करते हैं, तीर्थंकर नहीं। जिस कार्य को गणधर नहीं कर सकते, उसे तीर्थंकर करते हैं । अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या गणवरों का निर्वाचन तीर्थंकर करते हैं, या श्रमणसंघ के द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं या स्वतः ही बनते हैं ? इन प्रश्नों के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि तीर्थंकर भगवान द्वारा उच्चारित "उप्पन्ने इ वा, विगमे इ वा धुवेइ वा " इस त्रिपदी को सुनकर जिस-जिस मुनिवर को चौदह पूर्वो का या सम्पूर्ण दृष्टिवाद का ज्ञान हो जाता है, उस उस मुनिवर को गणधरपद प्राप्त होता है । त्रिपदी सुनते ही चौदह पूर्वो का ज्ञान हो जाता है, ऐसी बात नहीं है। जिसे त्रिपदी के चिन्तन-मनन और अनुप्रेक्षा ( निदिध्यासन ) करते-करते श्रुतज्ञान की महाज्योति; प्रस्फुटित हो जाए अर्थात् चौदह पूर्वी का
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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