________________
४०
कहते हैं, लौकिक व्यवहार को भी क्रिया कहते हैं । इसमें ७२ कलाएं पुरुषों की और ६४ कलाएं स्त्रियों की, शिल्पकला, काव्यसम्बन्धी - गुणदोष, विधि का, व्याकरण, छन्द, अलंकार, और रस इन सब का तथा धर्म क्रिया का विस्तृत वर्णन है ।
१४. लोक विन्दुसारपूर्वं – संसार और उसके हेतु, मोक्ष और मोक्ष का उपाय, धर्म-मोक्ष, और लोक का स्वरूप, इनका लोक बिन्दुसार पूर्व में विवेचन है । यह पूर्व श्रुतलोक में सर्वोत्तम है ।
अनभिलाप्य पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय पदार्थ होते हैं और प्रज्ञापनीय पदार्थों के अनन्त भाग प्रमाण श्रुतनिबद्ध है। संख्पात अक्षरों के समुदाय को पदभुत कहते हैं। संख्यात पदों का एक संघातश्रुत होता है। संस्थात भूतों की एक प्रतिपत्ति होती है। संख्यात प्रतिपत्तियों पर एक अनुयोग श्रुत होता है। चारों अनुयोगों का अंतर्भाव प्राकृतप्राभृत में होता है। संस्थात प्राभृतप्राभृत के समु दाय को प्राभृत कहते हैं। संख्यातप्राभूतों का समावेश एक वस्तु में हो जाता है। संख्यात वस्तुओं के समुदाय का एक पूर्व होता है।
परोक्ष प्रमाण में श्रुतज्ञान और प्रत्यक्ष प्रमाण में केवलज्ञान दोनों ही महान हैं, जिस तरह श्रुतज्ञानी सम्पूर्णद्रव्य और उनकी पर्यायों को जानता है। वैसे ही केवलज्ञान भी सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को जानता है । अन्तर दोनों में केवल इतना ही है कि श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है इसलिए इसकी प्रवृत्ति अमूर्त पदार्थों में उनकी अर्थ पर्याय तथा सूक्ष्म अर्थों में स्पष्टतया नहीं होती । केवलज्ञान निरावरण होने के कारण सकल पदार्थों को विशदरूपेण विषय करता है । अवधिज्ञान और मनः पर्यव ज्ञान ये दोनों प्रत्यक्ष होते हुए भी श्रुतज्ञान की समानता नहीं कर सकते। पांच ज्ञान की अपेक्षा, श्रुतज्ञान, कल्याण की दृष्टि से और परोपकार की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान रखता है, श्रुतज्ञान ही मुखरित है, शेष चार ज्ञान मूक हैं । व्याख्या श्रुतज्ञान की ही की जा सकती है। शेष चार ज्ञान, अनुभवगम्य हैं, व्याख्यात्मक नहीं आत्मा को पूर्णता की ओर ले जाने वाला श्रुतज्ञान ही है, मार्गप्रदर्शक यदि कोई ज्ञान है तो वह श्रुतज्ञान ही है संयम-तप की आराधना में परीवह उपसर्गों को सहन करने में सहयोगी साधन घुंतज्ञान है। उपदेश, शिक्षा, स्वाध्याय, पढ़ना-पढ़ाना, मूल, टीका, व्याख्या ये सब श्रुतज्ञान है। अनुयोगद्वारसूत्र में श्रुतज्ञान को प्रधानता दी गई है। श्रुतज्ञान का कोई पारावार नहीं, अनन्त है। विश्व में जितनी पुस्तकें हैं, जितनी लुप्त हो गई हैं और आगे के लिए जितती बनेगी, उन सबका अन्तर्भाव दृष्टिवाद में हो जाता है । जो सत्यांश है वह स्वसमय है, जो अपत्यांश है, वह परसमय और जो सत्य-असत्य मिश्रितांश है, वह तदुभय समय है । इस प्रकार साहित्य को तीन भागों में विभाजित करना चाहिए ।
पूर्व
१
२
३
५
६
वत्थु
१०
*
{ང
१२
u ~
२
१६
चूलिका
४
१२
१०
पाहुड
२०००
२८०
१६०
३६०
२४०
२४०
३२०
पद परिमाण
१ करोड़
६६ लाख
७० लाख
६० लाख
१ कम एक करोड़
१ करोड ६ पद
२६ करोड़