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धम्मो मंगलमुक्किटं, अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमंसन्ति, जस्स धम्मे सया मणो॥ इस गाथा में अव्यय सहित १४ पद हैं, इनको भी पद कहते हैं। वियरयमला' पहीण जरमरणा, कित्तिय-वंदिय-महिया, उज्जोयगरे' इत्यादि शब्द समासान्त पद कहलाते हैं। जहां अर्थ की उपलब्धि हो उसे भी पद कहते हैं, जैसे कि "कहं नु कुज्जा सामाण्णं जो कामे न निवारए" इस पूरे वाक्य से अर्थ की उपलब्धि होती है अर्थात् यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदम्, इस दृष्टि से जहां अर्थज्ञान हो, वह पद कहलाता है । वाक्यों के समूह को भी पद कहते हैं, जैसे पैराग्राफ । जिसमें द्रव्यानुयोग का विषय विभाजित हो, उसमें से किसी एक भाग को भी पद कहते हैं, जैसे कि प्रज्ञापना सूत्र में ३६ पद हैं, उनमें कोई छोटा है और कोई बड़ा, सब तुल्य नहीं हैं। इसी तरह युग्म, विशेषक, और कुलक इन्हें भी पद कहते हैं, ये सब अर्थपद से सम्बन्धित हैं।
छन्द शास्त्रानुसार श्लोक के एक चरण को पद कहते हैं, फिर भले ही वह श्लोक मात्रिक छन्द में हो या वर्णछन्द, किसी भी एक चरण को प्रमाण पद कहते हैं । अथवा अक्षरों के परिमित प्रमाण को प्रमाणपद कहते हैं । जैसे अनुष्टुप श्लोक के एक चरण में आठ अक्षर होते हैं, बत्तीस अक्षरों का एक श्लोक होता है, एक श्लोक में चार पद होते हैं, इसे भी प्रमाणपद कहते हैं, अथवा मुहावरे में कहा जाता है, अमुक व्यक्ति ने पांच हजार या दस हजार शब्दों में भाषण दिया है, इसे प्रमाण पर्द कहते हैं।
श्वेताम्बर आम्नाय के अनुसार अर्थपद के अन्तर्गत इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदम् यह मान्यता अधिक प्रामाणिक सिद्ध होती है । क्योंकि आचार्य हरिभद्र और आचार्य मलयगिरि दोनों की वृत्ति में पद की परि-- भाषा उपयुक्त शैली से ही की गयी है । यह परिभाषा हृदयंगम भी होती है, और यह परिभाषा आधुनिक ही नहीं, प्रत्युत् बहुत ही प्राचीन है । पद परिमाण का वर्णन अङ्गप्रविष्ट आगमों में ही देखने को मिलता है। अङ्गबाह्य आगमों में पद परिमाण का कोई उल्लेख नहीं है । प्रज्ञापना सूत्र में अध्ययन के स्थान पर पद का प्रयोग किया है।
दिगम्बर आम्नाय के अनुसार पद का लक्षण मध्यमपद से ग्रहण किया है । उनका कहना है जो अङ्ग शास्त्रों में पद परिमाण की गणना लिखी है, वह मध्यम पद से ही समझनी चाहिए, जैसे १६ अर्ब, ३४ करोड ८३ लाख७ हजार ८ सौ ८८ अक्षरों का एक मध्यमाद कहलाता है । इतने अक्षरों के अनुष्टुप् छन्द ५१ करोड ८ लाख, ८४ हजार, ६ सौ, इक्कीस बनते हैं। उसने इलोकों के परिमाण को एक पद कहते हैं, इस हिसाब से आचाराङ्ग में १८००० पद हैं।
कोई विशिष्ट बुद्धिमान और विद्वान यदि दस अनुष्टुप् श्लोकों का उच्चारण प्रत्येक मिनिट में करे और इसी तरह निरन्तर २० घण्टे बिना किसी अन्य कार्य किए उच्चारण करता ही रहे, तो एक वर्ष में ४३.२०००० श्लोकों का ही उच्चारण कर सकता है, इससे अधिक नहीं । गौतम स्वामी जी ३० वर्ष तक भगवान महावीर की चरण-शरण में रहे। सब कार्य बन्द करके जीवनपर्यन्त दिन रात श्लोक रचते रहना दुःशक्य ही नहीं, अपितु अशक्य ही है। यदि रच भी लें, तो वह एक पद का तीसरा हिस्सा भी रच नहीं सकते, जब कि एक पद ५१०८८४६२१ अनुष्टुप् श्लोकों के परिमाण जितना होता है । इस गणना से १८००० पद तो आचाराङ्ग के, ३६००० पद सूत्रकृताङ्ग के इस प्रकार द्वादशाङ्ग वाणी के १८४ संखसे अधिक और १८५ संख से न्यून इतने अक्षरों का श्रत परिमाण का अध्ययन करना, कैसे संगत बैठ सकता है ? भद्रबाह स्वामी जी ने स्थूलिभद्र जी को दस पूर्वो का ज्ञान अर्थ सहित कराया है, शेष चार पूर्वी