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________________ ३६ ३. मायागता – इन्द्रजाल मिस्मरेजिंग के कारण भूत का वर्णन है । ४. रूपगता इसमें सिंह पोड़ा, हरिण आदि के रूप धारिणी विद्याओं के कारणीभूत मंत्र-तंत्र, तपश्चरण, चित्रकर्म, काष्ठ कर्म, लेप्यकर्म लेनकर्म आदि के लक्षणों का वर्णन है । - ५. श्राकाशगता -- आकाश में गमन करने के जंघाचरण तथा विद्याचरण लब्धि प्राप्त करने के साधन बताए हैं । जब कि नन्वीसूत्र में आदि के चार पूर्वो की चूलिकाएं बताई हैं, उन्हीं को दृष्टिवाद के पांचवें अधि कार में निहित किया है । चूलिकाएं पूर्वो से न सर्वथा अभिन्न हैं और न सर्वथा भिन्न ही हैं । इसी कारण सूत्रकार ने उनका स्थान पांचवां रखा है । दिगम्बर परम्परा में अवधिज्ञान के तीन भेद किए हैं, जैसे कि - देशावधि, सर्वावधि और परमावधि । इनमें पहला भेद चारों गतियों में पाया जाता है, जैसे असंयत, संयत तथा संयतासंयत में, किन्तु पिछले. दो भेद अप्रतिपाति होने से केवल चरमशरीरी संयत में ही पाए जाते हैं। श्वेताम्बर आम्नाय के अनुसार प्रस्तुत सूत्र में अवधिज्ञान सविस्तार वर्णित है। दिगम्बर परम्परा में ऋजुमति मनः पर्याय के तीन भेद किए हैं, जैसे कि ऋमनोगतायें विषयक, ऋजुवचनगतार्थं विषयक और ऋकायगतार्थं विषयक परकीय मनोगत होने पर भी जो सरलता से मनवचन, काय के द्वारा किए गए संकल्प को विषय करने वाले को ऋजुमति ज्ञान कहते हैं। विपुलमति । मनःपर्याय ज्ञान के ६ भेद किए हैं तीन उपर्युक्त ऋजु के साथ और तीन कुटिल के साथ जोड़ देने से ६ भेद बन जाते हैं । जिसका भूतकाल में चिन्तन किया गया हो, जिसका अनागत काल में चिन्तन किया जाएगा और वर्तमान में आपा चिन्तन किया है, उसे जानने वाला विपुलमतिमनःपर्याय ज्ञान कहलाता है। पूर्वगत ज्ञान क्यों कहते हैं ? अंग सूत्रों की रचना करने से पहले गणधरों को जो ज्ञान होता है, वह पूर्वगतज्ञान कहलाता है। पुराणों में एक रूपक है- "सबसे पहले जब आकाश से गंगा उत्तरी तो उसे पहले शिवशंकर ने अपनी जटाओं में अवरुद्ध किया और कुछ समय बाद उसे बाहिर प्रवाहित किया ।" इस उक्ति में सच्चाई कहां तक है ? इसकी गवेषणा का हमारा उद्देश्य नहीं है। हां, जब तीर्थंकर भगवान् देशना प्रवचन कहते हैं, तब वह ज्ञानगंगा तीर्थंकर के मुख से प्रवाहित होती है तो उसे गणधर पहले अपने मस्तिष्क में डालते हैं । जब मस्तिष्क-कुण्ड भर जाता है, तब उसे बारह अंगों में विभाजित करके प्रवाहित करते हैं, अर्थात् सूत्ररूप में १२ अंगों की रचना गणधर करते हैं जिनको दीक्षा लेते ही पूर्वो का ज्ञान हो जाता है वे ही गणधर बनते हैं, शेष दीक्षित मुनिसत्तम, गणबरों से आचाराङ्ग आदि अंग का अध्ययन करते हैं तथा दृष्टिवाद का भी । इसी कारण पूर्वगत संज्ञा दी गई है । पूर्वों में क्या २ विषय है ? १. उत्पादपूर्व में जीव, काल और पुद्गल आदि द्रव्य के उत्पाद, व्यय और ध्रुवत्व का विशद १. देखो गोम्मट सार गा० ४३८-४३१ |
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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