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है । वह अपने आप में इतना महान् है, जिसका अथाह श्रुतकेवली भी नहीं पा सके। फिर भी दृष्टिवाद में श्रुतज्ञान की पूर्णता नहीं होने पाती। अतः श्रुतज्ञान दृष्टिवाद से भी महान् है। श्रुतज्ञान की अपेक्षा मतिज्ञात अधिक महान् है, क्योंकि श्रुत, मतिपूर्वक होता है, न कि श्रुतपूर्विकामति होती है । आगमों में जहां कहीं ज्ञान की आराधना का ज०म० उत्कृष्ट का प्रसंग आया है, वह श्रुत की अपेक्षा से समझना चाहिए । सिर्फ आठ प्रवचन माता का ज्ञान होना जघन्य आराधना है । चौदह पूर्वो का ज्ञान हो जाना मध्यम आराधना है । सम्पूर्ण दृष्टिवादका ज्ञान होजाना उत्कृष्ट आराधना है। उत्कृष्ट श्रुतज्ञान का आराधक उसी भव में मोक्ष प्राप्त करता है। जिसका श्रुतज्ञान सम्पूर्ण दृष्टिवाद तक विकसित हो गया है, वह कभी भी प्रतिपाति नहीं होता।
- इस अवसर्पिणी काल में अलग-अलग समय में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं उनमें सर्वप्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए हैं और चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर हुए हैं। इन दोनों का परस्पर अंतर एक करोडाकरोड सागरोपम का था।' सभी तीर्थंकरों के शासनकाल में नियमेन द्वादशांग गणिपिटक होता है । एक तीर्थकर के जितने गण होते हैं, उतने ही गणधर होते हैं, तथा प्रत्येक अंग सूत्र की वाचनाएं भी उतनी ही होती हैं, किन्तु भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे, गण नौ थे और वाचनाएं भी नौ हई। आठवें, नौवें अकंपित और अचलभ्राता इनकी वाचनाएं एक ही प्रकार की प्रवृत्त हुई और दसवें, ग्यारहवें मेतार्य और प्रभास इन गणधरों की वाचनाएं भी एक ही प्रकार की थी. इस प्रकार नौ गणों की न की वाचनाएं प्रवृत्त हुई । इस प्रकार द्वादशांग गणिपिटक की नौ धाराएं प्रवहमान हुई । उनमें से आजकल जो भी आगम विद्यमान हैं, वे सब श्रीसुधर्मास्वामी की वाचनाएं हैं, शेष गणवरोंकी वाचनाएं व्यवच्छिन्न हो गई।।' कारण कि उनकी शिष्य परम्परा नहीं चलने पाई, क्योंकि नौ गणधर तो भगवान महावीर के होते हुए ही निर्वाण हो गए । भगवान् महावीर के निर्वाण होने पर अन्तर्मुहुर्त में ही गौतमगोत्रीय इन्द्रभूतिजी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और बारह वर्ष केवलज्ञान की पर्याय में रहकर ६२ वर्ष की आयु समाप्त कर विदेहमुक्त हुए।
गणधर या आचार्य छद्मस्थकाल में ही शिष्यों को वाचना देते हैं, क्योंकि अध्ययन और अध्यापन श्रुतज्ञान के बल से होता है। केवलज्ञान होने पर न वे गणधर कहलाते हैं और न आचार्य ही। वे देह के रहते हुए अरिहन्तं और विदेह अर्थात् निर्वाण होने पर सिद्ध कहलाते हैं। सुधर्मा स्वामी ३० वर्ष गणधर रहे, बारह वर्ष आचार्य और आठ वर्ष केवलज्ञान की पर्याय में रहे । श्रीसुधर्मा स्वामीजी ने बारह वर्ष तक जम्बूस्वामी आदि अनेक मुनिवरों को अंग सूत्रों की वाचनाएं दीं। उनके शिष्यों ने भी वही शैली स्थिर रखी। चौदह पूर्वो का अध्ययन सूत्ररूप से और अर्थरूप से भद्रबाहु स्वामी तक रहा, तत्पश्चात् स्थूलभद्रजी मे अभिन्न-अर्थात सम्पूर्ण दस पूर्वो का ज्ञान सत्र और अर्थ दोनों प्रकार से सीखा। शेष चार पर्व स सीखे, अर्थरूप से नहीं। इस प्रकार क्रमशः दृष्टिवाद का ह्रास होते-होते वीरनिर्वाण सं० १००० वर्ष तक दृष्टिवाद का ज्ञान रहा, तत्पश्चात् वह श्रुतज्ञान का महाप्रकाशरूप दृष्टिवाद विच्छिन्न हो गया । इस युग में
१, उसभसिरिस्स भगवो चरिमस्स य महावीरवद्धमाणस्स एगा सागरोवमकोडाकोडी श्राबाहाए अन्तरे पण्णत्ते ।
-श्री समवायांग सूत्र, १७३ | २. जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरन्ति, एए. णं सन्चे अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स आवच्चिज्जा, अवसेसा गणहरा निरवच्चा वुच्छिन्ना |
-कल्पसूत्र