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दीपक के सदृश ११ अंगसूत्र ही मुमुक्षुओं के जीवन को प्रकाशित कर रहे हैं, यथा समय तक भविष्य में भी प्रकाशित करते रहेंगे ।
यह पहले लिखा जा चुका है कि द्वादशाङ्ग गणिपिटक सभी तीर्थकरों के शासन में नियमेन पाया जाता है, तो क्या उनमें विषय वर्णन एक सदृश ही होता है? या विभिन्न पद्धति से होता है ? इस प्रकार अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं । इन प्रश्नों के उत्तर निम्न प्रकार से दिए जाते हैं ।
द्रव्यानुयोग चरणकरणानुयोग और गणितानुयोग इनका वर्णन तो प्रामः तुल्य ही होता है, युगानुकूल वर्णन शैली बदलती रहती है किन्तु धर्मकथानुयोग प्रायः बदलता रहता है । उपदेश, शिक्षा, इतिहास, दृष्टान्त उदाहरण और उपमाएं इत्यादि विषय बदलते रहते हैं। इनमें समानता नहीं पाई जाती । जैसे कि काकन्द नगरी के धन्ना अनगार ने ११ अंङ्ग सूत्रों का अध्ययन नौ महीनों में ही कर लिया था, ऐसा 'अनुत्तरोपपातिक सूत्र में उल्लिखित है। अतिमुफ्तकुमार ( एवंताकुमार ) जी ने भी ग्यारह अंग सूत्रों का अध्ययन किया, जिनका विस्तृत वर्णन अन्तगड सूत्र के छठे वर्ग में है, स्कन्धक संन्यासी जो कि महावीर स्वामी के सुशिष्य बने, उन्होंने भी एकादशाङ्ग गणिपिटक का अध्ययन किया, ऐसा भगवती सूत्र में स्पष्टोल्लेख है । इसी प्रकार मेघकुमार मुनिवर ने भी ग्यारह अङ्ग सूत्रों का श्रुनज्ञान प्राप्त किया है, ऐसा ज्ञाताधर्म कथा सूत्र में वर्णित है। इस्यादि अनेक उद्धरणों से प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या उन्होंने उन आगमों में अपने ही इतिहास का अध्ययन किया है ? इसका उत्तर इकरार में नहीं इन्कार में ही निल सकता है । इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि जो सूत्र वर्तमान काल में उपलब्ध हैं, वे उनके अध्येता. नहीं थे, उन्होंने सुधर्मास्वामी के अतिरिक्त अन्य किसी गणधर की वाचना के अनुसार ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। दृष्टिवाद में आजीविक और वैराशिक मत का वर्णन मिलता है, तो क्या भगवान् ऋषभदेव के में भी इन मतों का वर्णन दृष्टिवाद में था ? गण्डिकानुयोग में एक भद्रबाहुगण्डिका है तो क्या ऋषभदेव भगवान् के युग में भी भद्रकांगण्डिका थी ? इनके उत्तर में कहना होगा कि इन स्थानों की पूर्ति तत्संबंधित अन्य विषयों से हो सकती है । निष्कर्ष यह निकला है कि इतिहास दृष्टान्त शिक्षा उपदेश तत्त्वनिरूपण की शैली सबके युग में एक समान नहीं रहती । हां द्वादशाङ्ग गणिपिटक के नाम सदा अवस्थित एवं शाश्वत हैं, वे नहीं बदलते हैं। जिस अंग सूत्र का जैसा नाम है, उसमें तदनुकूल विषय सदा-काल
युग
पाया जाता है । विषय की विपरीतता किसी भी शास्त्र में नहीं होती। ऐसा कभी नहीं होता कि आचाराङ्ग में उपासकों का वर्णन पाया जाए और उपासकदशा में आचाराङ्ग का विषय वर्णित हो। जिस आगम का जो नाम है, तदनुसार विषय का वर्णन सदा-सर्वदा उसमें पाया जाता है।
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द्वादशाङ्ग गणिपिटक प्रामाणिक आगम हैं, इनमें संशोधन, परिवर्धन तथा परिवर्तन करने का अधि कार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देखते हुए श्रुतकेवली को है, अन्य किसी को नहीं और तो क्या अक्षर मात्रा अनुस्वार आदि को भी न्यून अधिक करने का अधिकार नहीं है जंचाइ र वामेलियं हीराक्खरं अच क्खरं, पग्रहीणं, घोसहीणं इत्यादि श्रुतज्ञान के अतिचार हैं । अतिचार के रूप में ये तभी तक हैं, जब तक कि भूल एवं अबोध अवस्था में ऐसा हो जाए। यदि जान बूझ कर अनधिकार चेष्टा की जाए तो अतिचार नहीं, अपितु अनाचार का भागी बनता है अनाचार मिध्यात्व एवं अनन्त संसार का पोषक है। वेद, वाईवल कुरान, जैसे इनमें किसी मंत्र, पाठ, आयत आदि का कोई भी उसका अनुयायी हेर-फेर नहीं करता, इतना ही नहीं प्रत्येक अक्षर व पद का वे सम्मान करते हैं। इसी प्रकार हमें भी आगम के प्रत्येक पद का सम्मान करना