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णं तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिमपच्छिम एसु अट्टसु अट्ठसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स वोच्छेदे पण्णचे । सम्वत्थ वि शं वोच्छिन्ने दिट्टिवाए।" भ० श. २०, उ०८।
. सभी तीर्थंकरों के शासनकाल में दष्टिवाद का व्यवच्छेद हुआ है। इस पाठ से यह स्पष्ट सिद्ध है कि दृष्टिवाद सभी तीर्थकर के शासनकाल में होता है । भगवान् महावीर के शासन प्रवृत्त करने से पहले ही पार्श्वनाथजी के शासन में दृष्टिवाद का व्यवच्छेद हो गया था, सिर्फ ग्यारह अंगश्रुत ही शेष रह गए थे। पूर्वधर कोई भी मुनिवर उस समय में नहीं था, ऐसा इस पाठ से ध्वनित होता है । अव लीजिए ग्यारह अंग श्रत की प्राचीनता के प्रमाण
जम्बूदीवे णं दीवे इमीसे णं प्रोसप्पिणीए तेवीसं तित्थयरा पुन्वभवे एकारसंगिणो होत्था, तं अजियसंभव अभिणंदण सुमई जाव पासो वद्धमायो य । उसमे गं अरहा कोसलिए चोइसपुव्वी होत्था ।
समवयांग सूत्र, समवाए २३ । ऋषभदेव के अतिरिक्त २३ तीर्थंकरों ने पूर्वभव में ग्यारह अंग सूत्रों का श्रुतज्ञान ही प्राप्त किया है, किन्तु ऋषभदेवजी के जीव ने पूर्वभव में ग्यारह अंगों के अतिरिक्त १४ पूर्वो का श्रुतज्ञान भी प्राप्त किया। इसकी पुष्टि के लिए अन्य प्रमाण भी है, जैसे कि-पढमस्स वारसंगं, सेसाणि कारसंग सुयलम्भो ।
प्रा. म. १०, १ खंड । इस पाठसे भी यही सिद्ध होता है जोकि ऊपर लिखा जा चुका है। इन सब प्रमाणों से उक्त मान्यता निर्मूल हो जाती है। प्रत्येक तीर्थंकर के शासन में जो श्रुतज्ञान के आराधक होते हैं, उनमें कोई ग्यारह अंगश्रुत के, कोई पूर्वो के पाठी होते हैं और कोई सम्पूर्ण दृष्टिवाद के वेत्ता होते हैं । इनमें सबसे अल्पसंख्यक सम्पूर्ण दृष्टिवाद के वेत्ता होते हैं । 'पूर्वो' के अध्येता अधिक और सबसे अधिक संख्या वाले ग्यारह अंगों के श्रुतज्ञानी होते हैं।
महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से द्वादशांग गणिपिटक अनादि अनन्त है, किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र की अपेक्षा से सादि-सान्त है। ज्ञाताधर्मकथानामक सूत्र के आठवें अध्ययन में मल्लिनाथ जी के पूर्व भव का वर्णन करते हुए लिखा है-महव्वल कुमार आदि सात मित्रों ने मुनिवृत्ति ग्रहण की, ११ अंगों का श्रुतज्ञान प्राप्त करके अनुत्तर विमान में देवत्व के रूप में उत्पन्न हुए । बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के युग में गौतमकुमार आदि दस मुनिवर ११ अंगों का ही श्रुतज्ञान प्राप्त करके अन्तकृत केवली हुए।
अंतगड सू० वर्ग पहला । ऋषभदेव भगवान् के ८४ हजार साधुओं में ४७५० मुनिवर दृष्टिवाद के वेत्ता हुए और शेष मुनि ११ अंग सूत्रों के ज्ञानी हुए, ऐसा कल्पसूत्र में स्पष्ट उल्लेख है । जालिकुमार आदि दस मुनिवर अरिष्टनेमिजी के शिष्य हुए, उन्होंने द्वादशांग गणिपिटक का श्रुतज्ञान प्राप्त किया और अन्तकृत केवली हुए। ऐसा स्पष्टोल्लेख अंतगड सूत्र के चौथे वर्ग में है। ग्यारह अंग सूत्रों का श्रुतज्ञान पूर्वो में समाविष्ट होजाता है और पूर्वो का श्रुतज्ञान दृष्टिवाद में अन्तर्भूत होजाता है, क्योंकि छोटी चीज बड़ी में सन्निविष्ट हो जाती है । दृष्टिवाद के पांच अध्ययन हैं, उनमें पूर्वगत ज्ञान एक अध्ययन है, जिसमें १४ पूर्वो का ज्ञान समाविष्ट हो जाता है । जिस ज्ञानतपस्वी का, जितना श्रुतज्ञानावणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, वह तदनुसार ही श्रुतज्ञान की आराधना कर सकता है । तीर्थंकर के सभी गणधर सम्पूर्ण दृष्टिवाद के अध्येता होते हैं, जबकि शेष मुनिवरों के विषय में विकल्प है । अंग सूत्रों की अपेक्षा दृष्टिवाद उत्तमांग के स्तर पर