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नन्दीसूत्र में पांच ज्ञानों में अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान ये तीन ज्ञान, प्रत्यक्ष प्रमाण में गर्भित किए हैं । इन्हें किसी बाह्य निमित्त की आवश्यकता नहीं रहती, न इन्द्रियों की, न मन की और न आलोक की, उस ज्ञान का सम्बन्ध तो सीधा आत्मा से ही होता है । जैसे २ क्षयोपशम की तरतमता होती है, वैसे २ प्रत्यक्ष होता है, किन्तु सकलादेश प्रत्यक्ष में आवरण का सर्वथा क्षय होना अनिवार्य है, तभी केवलज्ञान प्रत्यक्ष होता है, स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। नन्दीसूत्र में पहले प्रत्यक्ष के दो भेद बतलाएं हैं, इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष । इन्द्रियप्रत्यक्ष सांव्यवहारिक है न कि पारमार्थिक । नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के तीन भेद गिनाए हैं, जैसे कि-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, और केवलज्ञान ये उत्तरोत्तर विशुद्धतर, विशुद्धतम हैं। सूत्रकार ने प्रत्यक्ष ज्ञान की मूख्यता और स्पष्टता को तथा वर्णन की दृधि से अल्पता को लक्ष्य में रखकर उपर्युक्त तीन ज्ञान का वर्णन पहले किया है।
इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान है। मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का अवलम्बन लेकर मतिपूर्वक जो अन्य पदार्थों का ज्ञान होता है, वह श्रतज्ञान है। मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है । और स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क , अनुमान तथा आगम इनको परोक्ष प्रमाण में सम्मिलित किया है । नन्दीसूत्र में परोक्ष प्रमाण का वर्णन पीछे किया है । परोक्षज्ञान-अस्पष्ट और जटिल होता है। उसे समझने-समझाने में बहुत कठिनाई प्रतीत होती है। धर्म-धर्मी, अवयव-अवयवी, क्रिया-क्रियावान, गुण-गुणी का भेद किए बिना पदार्थों का जो ज्ञान होता है, वह ज्ञान, प्रमाण है। यह लक्षण सभी प्रमाणों में घटित हो जाता है । अथवा पांच ज्ञान, प्रमाण और नथ में अन्तर्भूत हो जाते हैं। अनन्तधर्मात्मक रूप वस्तु को सर्वांश रूप से ग्रहण करने वाला प्रमाण और उसके विशेष किसी एक धर्म को ग्रहण करने वाला नय कहलाता है। नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय त्रैकालिक विषयक हैं। ऋजुसूत्र केवल वर्तमान विषयक है। शेष तीन नय प्रायः वर्तमान कालापेक्षी हैं ।
प्रमाण कथंचित भिन्नाभिन्न हैं । ज्ञान चाहे प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, प्रमाण हो या नय, वस्तुतत्त्व का जैसा स्वरूप है, यदि वैसा ही ज्ञान है, तो वह ज्ञान प्रमाण तथा नय की कोटि में माना जाता है। अन्यथा प्रमाणाभास, एवं दुर्नय है, उसकी गणना सम्यग्ज्ञान की कोटि में नहीं की जा सकती। प्रमाण और नय सम्यक्त्व अवस्था में ज्ञान के साधन हैं । प्रमाणाभास और दुर्नय दोनों मिथ्याज्ञान के पोषक एवं परिवर्द्धक हैं । नन्दीसूत्र प्रमाणवाद एवं नयवाद दोनों को लेकर ही चलता है । इसी कारण वे सम्यग्ज्ञान के साधन माने जाते हैं । नन्दीसूत्र में पांचों का वर्णन दो भागों में विभाजित है पूर्वार्ध में प्रत्यक्ष प्रमाण का वर्णन है और उत्तरार्ध में परोक्षप्रमाण का । स्थविरावली के विषय में . अनेक विद्वन्मुविरों की यह धारणा चली आ रही है कि जो नन्दीसूत्र के आदि में मंगलाचरण के अन्तर्गत स्थविरावली है, वह पट्टधर आचार्यों की है, और किन्हीं का कहना है कि यह देववाचकजी की गुर्वावली है । परन्तु हमारे विचार में यह स्थविरावली न एकान्तरूप से पट्टधर आचार्यों की है और न यह देववाचकजी की गुर्वावली है, वस्तुत: देववाचक के जो परम श्रद्धेय थे, उनका परिचय ही उन्होंने गाथाओं में लौकिक तथा लोकोत्तरिक गुणों के साथ दिया है।
____ जो आचार्य, उपाध्याय या विशिष्ट आगम-धर आचार्य तथा अनुयोगाचार्य किसी भी शाखा में हुए हैं, गाथाओं में उन्ही के पूनीत नाम उल्लेख किए गए हैं। इसके विषय में अनेक प्रमाण मिलते हैं । आचार्य