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________________ संभूतविजयजी जो कि यशोभद्र जी के शिष्य हुए हैं, आचार्य संभूतविजय और आचार्य भद्रबाहु स्वामी ये दोनों गुरु भ्राता थे, और संभूतविजय जी के शिष्य स्थूलभद्र जी हुए हैं, वे भी युगप्रधान आचार्य हुए, किन्तु हुए हैं भद्रबाहुजी के पश्चात् ही। आचार्य स्थूलभद्रजी के दो शिष्य हुए हैं–१ महागिरि और २ सुहस्ती, दोनों ही क्रमशः आचार्य हुए हैं, न कि गुरु-शिष्य ।। आर्य नागहस्ती जी वाचकवंशज हुए है, उनके लिए आचार्य शब्द का प्रयोग नहीं किया, जैसे कि "वड्डयो वायगवंसो जसवंसो अज्जनागहत्थीणं' । रेवति नक्षत्र ने उत्तम वाचकपद को प्राप्त किया। ब्रह्मद्वीपिक शाखा के परम्परागत सिंहनामा मुनिवर ने भी उत्तम वाचकपद को प्राप्त किया। जिन्होंने वाचकत्व को प्राप्त किया, उन वाचक नागार्जुन को भी देववाचक जी ने वन्दन किया है। इन उद्धरणों से प्रतीत होता है कि देववाचक जी ने महती श्रद्धा से पूर्वोक्त युगप्रधान वाचकों की स्तुति और उन्हें वन्दना की है । वे आचार्य नहीं थे, बल्कि वाचक हुए हैं। वाचक उपाध्याय को कहते हैं, जैसे कि वाचक उमास्वाति जी, वाचक अथवा उपाध्याय यशोविजय जी । अतः वाचक शब्द उपाध्याय के लिए निर्धारित है। कल्पसूत्र की स्थविरावली पर यदि हम दृष्टिपात करते हैं तो आर्य वज्रसेन जी १४ वें पट्टधर के मुख्यतया चार शिष्य हुए हैं, १ नाइल, २ पोमिल, ३ जयन्त और ४ तापस, इनकी चार शाखाएं निकलीं। देववाचक जी ने भूतदिन्न आचार्य का परिचय देते हुए कहा--'नाइल कुल वंस नन्दिकरे' इससे यह भी सिद्ध होता है कि यह गुर्वावली नहीं हैं। अपितु जो युगप्रधान आचार्य या अनुयोगाचार्य किसी भी शाखा या परम्परा में हुए हैं, उनकी स्तुति मंगलाचरण के रूप में की है। ___जिन महानुभावों का नाम और उनका परिचय देववाचक जी की स्मृति में नहीं था, उनके लिए उन्होंने कहा है "जे अन्ने भगवन्ते कालियसुय आणुशोगिय धीरे, ते पणमिऊण सिरसा" जो युगप्रधान कालिक श्रुतधर तथा अनुयोगाचार्य हुए हैं, उन्हें भी मस्तक झुकाकर नमस्कार करके नाणरस परूवणं वोच्छं कहकर नन्दीसूत्र के लिखने का प्रयोजन बतलाया है । इससे भी यही सिद्ध होता है कि सभी अनुयोगाचार्य मुनिवर चाहे वे किसी भी शाखा में हुए हैं, उनको वन्दन किया है। कल्पसूत्र में जो स्थविरावली है, वह वस्तुतः गुर्वावली ही है, उसमें पट्टधर आचार्यों के नामोल्लेख भी हुए हैं, किन्तु नन्दीसूत्र में युगप्रधान, विशिष्ट विद्वान एवं श्रुतधर आचार्य, उपाध्याय तथा अनुयोगाचार्य के पूनीत नामों का ही उल्लेख है, अन्य मुनियों का नहीं। स्तुतिनन्दी में १८॥१९॥३१॥३२१४८ । ये गाथाएं न चूणि में हैं, न मलयगिरिवृत्ति में और न हरिभद्रीयवृत्ति में ही मिलती हैं, किन्तु अन्य-अन्य प्रतियों में उपलब्ध होती हैं। जो श्रीसंघ ऋषभदेव भगवान् से लेकर एक अजस्र धारा में प्रवहमान था, वह वीर नि० सं० ६०६ में दो भागों में विभक्त हो गया, ऐसा विशेषावश्यक भाष्य में आचार्य जिनभद्रजी ने लिखा है उस समय दिगम्बर मत की स्थापना हुई, और वि० सं० के १३६ बर्ष के बाद श्वेताम्बर मत की स्थापना हई, ऐसा स्पषोल्लेख 'दर्शनसार' गा० ११ में पाया जाता है। इस प्रकार दोनों उद्धरणों से परस्पर दोनों परम्पराओं का अन्तर कुल तीन वर्ष का पाया जाता है। इन दोनों प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वीर १. ३४, २ गा० ३५, ३ गा० ३६, ४ गा०४०
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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