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नन्दीसूत्रम्
होता जा रहा है ऐसी आत्माएं मनुष्य से वैमानिकदेव, और वैमानिक से मनुष्य इस प्रकार सातभव देव के और आठ भव मनुष्य के नरक, तिथंच दोनों गतियों का बन्धाभाव करने से उच्चमानव भव और उच्च देवभव में भौतिक तथा आध्यात्मिक आनन्द अनुभव करती हैं इस कारण यह नन्दावर्त कहलाता है-जैसे बाहुकुमार का इतिहास हमारे सामने विद्यमान है । संभव है इस अधिकार में उक्त विषय निहित हो।
१४. मनुष्यावर्त्त-इस शब्द के पीछे भी अनेक अनिर्वचनीय रहस्य गभित हैं । मनुष्य भव में निरन्तर आवर्तकरते रहना सम्यक्त्व या चारित्र से प्रतिपाति होकर निरन्तर मनुष्य भव में कितनी बार जीव ने जन्म-मरण किए' या जीव मनुष्य भव कितनी बार निरन्तर प्राप्त कर सकता है ? निरन्तर आठ भव मनुष्य के हो सकते हैं, अधिक नहीं तत्पश्चात् निश्चय ही देवगति को प्राप्त करता है दूसरे भव से लेकर सातवें भव तक मुक्त होने का भी सुअवसर है किन्तु आठवें भव में नहीं। मनुष्य पहले भव में सिद्धगति प्राप्त करने की भजना है। छठी पांचवीं नरक से आया हुआ, किल्विषी और परमाधामी देवगति से आया हुआ, विकलेन्द्रिय और असंज्ञीतियंच तथा असंज्ञी मनुष्य से आया हुआ जीव मनुष्यगति में सिद्धत्त्व प्राप्त नहीं कर सकता । संभव है इस अधिकार में उक्त प्रकार से विषय का वर्णन किया हो।
सिद्ध श्रेणिका परिकर्म के अनन्तर मनुष्यश्रेणिका परिकर्म का वर्णन करने का मुख्य ध्येय यही हो सकता है कि मनुष्यगति से ही सिद्धिगति प्राप्त हो सकती है, अन्यगति से नहीं । सिद्धों तथा मनुष्यों के जितने भी कथनीय विषय हैं, उन सबका विभाजन उक्त चौदह अधिकारों में ही हो सकता है। पन्दरहवें अधिकार के लिए कोई विषय शेष नहीं रह जाता।
दृष्पिवाद नामक १२ वें अङ्ग के ४६ मातृकापद हैं । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों पदों को मातृका पद कहते हैं यहां पद, शब्द भेद अर्थ में अभीष्ट है। दृष्टिवाद के पहले भाग में परिकर्म का अधिकार है। परिकर्म के ७ भेद हैं, उनमें सिद्धश्रेणिका-परिकर्म और मनूष्यश्रेणिका-परिकर्म के १४-१४ भेद हैं उनमें सबसे पहला भेद मातृकापद है । सम्भव है ४६ मातृकापदों का अन्तर्भाव इन्हीं दो पदों में किया गया हो, कुछ मातृकापद सिद्धश्रेणिका-परिकर्म में हों और कुछ मनुष्यश्रेणिका-परिकर्म में, इस प्रकार इन्हीं दो श्रेणियों में मातृकापदों का प्रयोग किया है, अन्य किसी भी अधिकार में मातृकापदों का प्रयोग नहीं किया है । ऐसा समवायाङ्ग सूत्र से और प्रस्तुत नन्दी सूत्र से ज्ञात होता है । उक्त दोनों सूत्रों में "माउयापयाणि" वहु वचनान्त पद दिया है इससे भी यही ध्वनित होता है कि प्रत्येक दो श्रेणियों में अनेकों ही मातृकापद हैं । सम्भव है दोनों में २३-२३ अथवा न्यूनाधिक पद हों। प्रतीत ऐसा होता है कि ४६ मातृका पद दोनों श्रेणियों में विभक्त किए हैं। उक्त दो परिकर्मों में सिद्धों तथा मनुष्यों का वर्णन है। सूत्रगत शब्दों का आशय स्पर्श कर यह सिद्धश्रेणिका परिकम का संक्षिप्त विवरण लिखा है।
-संपादक चित्रान्तर गण्डिकानुयोग का दिग्दर्शन ऋषभदेव भगवान का शासन पचास लाख करोड़ सागरोपम से भी अधिक काल तक अर्थात् अजितनाथ भगवान के शासन प्रारम्भ होने तक निरन्तर चला तदनन्तर पहले शासन की इति श्री हई।
१. दिठिवायस्स णं छयालीसं माउया पया पण्णत्ता ।
समवायाङ्ग सू० नं०८५ । ४६ वीं समवाय माउयापयाणि माउयापया दोनों शब्द शुद्ध हैं पुल्लिंग में भी पद शब्दका प्रयोग कर सकते हैं।