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परिशिष्ट २
६. राशिबद्ध-अढाई द्वीप में गर्भज मनुष्यों की गणना ज. २२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२२ २२२२२२२ हो सकती है, इससे न्यून नहीं । मनुष्यों की उत्कृष्ट संख्या ६६६EEEEEEEEEEEEEEEEEE REEEEEEE इतनी हो सकती इससे अधिक नहीं । समूछिम मनुष्यों का उत्कृष्ट २४ मूहूर्त का अभाव भी हो सकता है। उनकी सत्ता जघन्य एक, दो यावत् संख्यात, असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के जितने समय होते हैं उतने असंख्यात सम्मूर्छिम उत्कृष्ट हो सकते हैं, इसे राशिबद्ध कहते हैं।
७. एकगुण-मनुष्यों में सब थोड़े परमावधिज्ञानी, विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी, सर्वार्थसिद्ध विमान से च्युत, शुक्ललेश्या सहित जन्म लेने वाले, चरमशरीरी, अभव्व, केवलज्ञानी, अप्रमत्तगुणस्थानापन्न पुलाकनियंठा, मनःपर्यवज्ञानी, छेदोपस्थानीय चारित्री, द्वादशाङ्गगणिपिटक के वेत्ता, आहारक लब्धिसंपन्न, जंघाचारण-विद्याचारण लब्धिवाले संयत संभव है इस प्रकार के मिलते-जुलते अनेक विषय इस अधिकार में हों। मनुष्यों में जो स्वल्प से स्वल्प हैं, भले ही बे अच्छे हों या बुरे उनकी गणना इस अधिकार में की गई है।
८. द्विगुण-उपश्रेणी की अपेक्षा क्षपक श्रेणिवाले द्विगुणित, सर्वविरति की अपेक्षा क्षायिक. सम्यग्दृष्टि मनुष्य द्विगुणित, तीर्थकर के होते हुए उनके शासन में मुनियों की अपेक्षा मोक्ष में जाने वाली
श्रमणीवर्ग द्विगुणित । महावीर के शासन में ७०० साधु और १४ साध्वीवृन्द ने केवलज्ञान प्राप्त किया। . संभव है इस अधिकार में एतद् विषयक वर्णन हो।
. .. त्रिगुण-संयतों की अपेक्षा साध्वियां त्रिगुण हों, जघन्य आराधक त्रिगुण हों। आराधकों की अपेक्षा विराधक संयमी त्रिगुण हों, क्षायिक-सम्यग्दृष्टि मनुष्य की अपेक्षा क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य त्रिगुण हों, सर्वार्थसिद्ध महाविमान से च्युत हुए मनुष्य की अपेक्षा चार अनुत्तर विमान से च्युत हुए मनुष्य त्रिगुण हों, संभव है इस प्रकार के वर्णन करने वाला अधिकार यही हो।
१०. केतुभूत-जो मनुष्य अपने कुल, गण. राष्ट्र तथा युग में ध्वजा की भान्ति सर्वोपरि है-जैसे कि तीर्थंकर चक्रवर्ती बलदेव वासुदेव गणधर आचार्य उपाध्याय, सेठ सेनापति, इत्यादि पदाधिकारी मनुष्य केतुभूत कहलाते हैं। संभव है इस अधिकार में केतुभूत-ध्वजासदृश मनुष्यों का तथा तत्सदृश बनने के उपायों का वर्णन हो।
११. प्रतिग्रह-इस शब्द का अर्थ होता है स्वीकार करना, व्रतधारण करने पश्चात् उत्थान, पतन स्खलना आराधना, विराधना सातिचार, निररिचार सदोष निर्दोष चारित्र पाला जा रहा है इस कारण उस भव में विशिष्ट चारित्र के अभाव होने पर जीव को पुनः भव भ्रमण करना पड़ता । उसी भव में कर्मों पर विजय न होने से वह विरति मनुष्य सिद्धिगति को प्राप्त न कर सका इसी प्रकार विरताविरति मनुष्य के विषय में समझलेना चाहिए। सातिचार श्रावकवृत्ति पालकर जीव तीसरे भव में मोक्ष का अधिकारी नहीं बन सका।
१२. संसार प्रतिग्रह---इस शब्द से ऐसा प्रतीत होता है, मनुष्यभव में पहली बार सम्यक्त्व प्राप्त किया, या पहली बार चारित्र धारण किया, उसके अनन्तर प्रतिपाति होकर उत्कृष्ट कितने कालतक भव
मण करना पड़ता है ? जघन्य आराधना से और अधिक विराधना से भवभ्रमण होता है ? इसके लिए जालिकुमार का उदाहरण ही पर्याप्त है।
१३. नन्दावर्त—जिस मनुष्य की काल लब्धि तो अधिक है, किन्तु संयम उत्तरोत्तर विशुद्ध विशुद्धत्तर