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________________ ३७६ नदीम् 1 भावतः इस प्रकार चारों की अपेक्षा पर्याय बदलती रहती है । कल्पना करो अभी-अभी सौ वर्ष की आयु वाला एक शिशु पैदा हुआ है। तुरन्त फोटोग्राफर ने उसकी फोटो ली प्रत्येक दिन प्रत्येक महीने और प्रत्येक वर्ष उसकी फोटो लेते रहें, सौ वर्ष समाप्त होने पर सभी फोटो को क्रमशः यदि सामने रखे जाएं तो सभी फोटो में विभिन्नता दृष्टिगोचर होती जाएंगी जैसे २ व्यक्ति में पर्याय बदलती है वैसे २ फोटो में भी अंतर नजर आएगा। सभी फोटों में द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की पर्याय पृथक २ है किसी फोटों में मुस्कान, किसी मैं शोक, किसी में रुदन, किसी में वीरता, किसी में प्रेम झलकता है और किसी में करता इत्यादि सब भागपर्याय हैं इस प्रकार मनुष्य भव में उत्पाद और व्यय की पर्याय बदलती रहती हैं किन्तु ध्रौव्य आयु पर्यन्त रहता है। मनुष्यभय भी एक द्रव्य पर्याय है, उसमें जो जीव है, वह अनादि अनंत काल से ध्रुव है । 1 मातृकापद भाषाको भी कहते हैं । विश्व में जितने प्रकार की भाषाएं तथा लिपिएं प्रसिद्ध हैं, उन सबकी गणना इसी अधिकार में हो जाती हैं। मनुष्य अपनी आयु में जितनी भाषाएं व लिपियाँ सीखता है। और जानता है। उतनी भाषाएं देवता भी नहीं जानता, धन्यगति के प्राणी तो क्या जाने ? मनुष्य श्रेणिकापरिकर्म के इस अधिकार में उपरोक्त विषय संभावित हो सकते हैं। ३. एकार्थक पद - पद दो तरह के होते हैं एकार्थक और अनेकार्थक मानुष, मनुष्य मानव मनुज ये सव एकार्थक पद हैं। हरि गौ सैन्धव इत्यादि पद अनेकार्थक हैं। मनुष्य वाचक जितने भी पद हैं, वे एकार्थक पद में निहित हैं, भले ही वे किसी भी भाषा के शब्द हों, एकार्थक हैं । 1 ३. अर्थपद -- मनुष्य शब्द के भी चार अर्थ होते हैं जैसे कि नाममनुष्य, स्थापनामनुष्य, द्रव्यमनुष्य और भावमनुष्य मनुष्य जाति के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु विशेष या प्राणी का नाम मनुष्य रख दिया वह नाम मनुष्य, मनुष्य के चित्र या मूर्ति को स्थापनामनुष्य कहते हैं जिस जीव ने मनुष्य की आयु बांध ली किन्तु वह अभी उदय नहीं हुई या कीं मनुष्य का पड़ा हुआ है दोनों प्रकार के द्रव्य मनुष्य कहलाते हैं । जब मनुष्यों की आयु को भोगा जा रहा हो तब उसे भाव मनुष्य कहते हैं संभव है इस अधिकार में मनुष्यों का विवरण उक्त प्रकार से हो। ४. पृथगाकाशपदमनुष्य की अयगनजन्य अंगुल के अध्यभाग मात्र उत्कृष्ट तीन गाऊ से अधिक नहीं, शेष मनुष्य सभी मध्यवर्ती वाले हैं। वे चाहे है या गर्भज, भोग भूमिज हैं या कर्मभूमिज संभव है इस पद में उनकी अगहना के विषय में सूक्ष्म वर्णन हो। जिन मनुष्यों की अवगना एक समान है अर्थात् सदन आकाश प्रदेशों को अवाहित करने वाले मनुष्यों की एक श्रेणि, जो एक आकाश प्रदेश से अधिक अवगाहित करने वाले हैं, उनकी दूसरी श्रेणि। इस प्रकार आकाश के प्रदेश-प्रदेश अधिक करते-करते यावत् उत्कृष्ट अवगहना वाले जितने मनुष्य हैं, उनकी एक श्रेणी इस प्रकार अवगहना की असंख्यात श्रेणियां बन जाती हैं। इस पद के गम्भीर चिन्तन करने से ऐसा अर्थ अनुभूत हुआ। 1 २. केतुभूत - केतुशब्द ध्वज के लिए भी रूट है और धूमकेतु के लिए भी वैसे ही जिन मनुष्प का अभ्युदय कुल, गण, नगर, राष्ट्र तथा विश्व के लिए भयप्रद और उपद्रव का कारण बना हुआ है मनुष्य केतुभूत हैं ऐसा इस पद से अर्थ झलकता है, तस्य केवलिगम्य है।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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