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________________ परिशिष्ट २ ३७५ विकास प्रारम्भ हुआ। जितने भी सिद्ध हुए हैं, उन्होंने सर्व प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त किया है और विकासका नया मोड़ प्रारम्भ हुआ । वस्तुतः सम्यक्त्व लाभ होने पर ही गुणों का एवं जीवन का पावन इतिहास प्रारम्भ होता है। उम्मुख हुए, वहीं से जीवन विकास और अवगुणों का ह्रास ११. प्रतिग्रह इसका अर्थ होता है स्वीकार करना सम्यक्त्वलाभ होने पर १२ व्रत गृहस्थ के तथा पांच महाव्रत साधु के इनमें से किसी एक मार्ग को अपनाया व्रतस्वीकार करने पर यथाशक्य नियमों को आराधना से, दुःशक्य या अशक्य नियमों को विराधना से संयम पाला बन्ध और निर्जरा दोनों ही चालू रहे, व्रतधारण करने पर उत्थान, पतन और स्खलना होती रही, उसके परिणाम स्वरूप पुनः भवभ्रमण करके सिगति को प्राप्त किया। संभव है, इस अधिकार में इस प्रकार का वर्णन हो । १२. संसारप्रतिग्रह - इसका अर्थ होता है सन्मार्ग से भटक कर उन्मार्ग में गमन करना। जिन आत्माओं ने सम्यक्त्व या चारित्र से प्रतिपाति होकर अशुभगतियों में संख्पातकाल, असंस्थात काल या अनन्तकाल पर्यन्त भवभ्रमण करके सिद्धत्व प्राप्त किया है, संभव है इस अधिकार में अतीतकाल की अपेक्षा उनके भव भ्रमण का इतिहास निहित हो । १३. नन्दावर्त्त – इसका भाव है आनन्दमय जीवन का आवर्त, जो सिद्ध अवस्था से पहले रत्नत्रय की आराधना करके आराधक बने, नरकगति तियंचगति, नीचगोत्र और अशुभनामकर्म का बन्ध छेदन कर उत्तममनुष्य भव और उच्चदेवभव में अनुपम सुख का उपभोग कर पुनः चारित्र ग्रहण कर सिद्ध गति को प्राप्त हुए । संभव है इस अधिकार में पूर्वोक्त वर्णन किया गया हो । १४. सिद्धावर्त्त - सिद्ध रूप में आवर्तन करना, जिन्होंने कर्मक्षय सिद्ध होने से पूर्व अथवा नश्चयिक सिद्ध होने से पूर्व मनुष्य के जितने आध्यात्मिक लब्धि संपन्न भव व्यतीत किए हैं, उन्हें व्यावहारिक सिद्ध कहते हैं । जो एकबार व्यावहारिक सिद्ध होकर नैश्चयिक सिद्ध हुए हैं। संभव है इस अधिकार में उन्हीं का वर्णन हो । मनुष्य श्र ेणिका - परिकर्म १. मातृकापद -- मनुष्य भव सब गतियों में और सब भवों में श्रेष्ठ गति एवं श्रेष्ठ भव है । अतः मनुष्य अपना महत्व विलक्षण ही रखता है। केवल जैन ही नहीं, विश्व में जितने आत्मवादी तथा आस्तिक है, वे सभी मानवभव को प्रधान मानते हैं। वैसे तो शुभ-अशुभ कर्मो का बन्ध जीव सभी गति, जाति, कुल और भवों में करता ही रहता है और कृतकर्मों का फल भी भोगता रहता है । किन्तु फिर भी जितना उत्थान, उन्नति, और विकास मनुष्य भव में हो सकता है उतना अन्य किसी भव में नहीं । & वें देवलोक से लेकर २६ वे देवलोक तक देवत्व के रूप में उत्पन्न होने की शक्ति मनुष्य में ही है और उन देवलोकों से देवता च्यव कर मनुष्य ही बनते हैं। इसके अतिरिक्त सिद्धत्व प्राप्त करने की शक्ति भी मनुष्य में ही है. इस दृष्टि से सिद्ध श्रेणिका परिकर्म के बाद मनुष्य श्रेणिका परिकर्म वर्णित किया है । मातृकापद त्रिपदी का द्योतक है। उत्पाद व्यय और ध्रुव इनको त्रिपदी कहते हैं। मनुष्य आयु उदय होने के पहले समय से लेकर अन्तिम समय तक उत्तरोतर की अपेक्षा से उत्पाद और पूर्व पूर्व की अपेक्षा से व्यय समय समय में हो रहा है। पहले समय से लेकर अन्तिम समय तक मनुष्यभव ध्रुव है। उत्पाद के बाद व्यय और व्यय के बाद उत्पाद यह क्रम बेरोक टोक चलता ही रहता है । द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः और
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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