________________
३७४
नन्दीसूत्रम्
६. राशिबद्ध-जो एक समय में, दो से लेकर एक सौ आठ सिद्ध हुए हैं, उन्हें राशिबद्ध कहते हैं । इनका क्रम इस प्रकार है-पहले समय में २ से लेकर ३२ पर्यन्त, दूसरे समय में ३३ से लेकर ४८ तक, तीसरे समय में ४६ से लेकर ६० तक, चौथे समय में ६१ से लेकर ७२ तक, पांचवें समय में ७३ से लेकर ८४ तक, छठे समय में ८५ से लेकर६६ तक, सातवें समय में ६७ से लेकर १०२ तक, और आठवें समय में १०३ से लेकर १०८ पर्यन्त सिद्ध होने वालों को संभव है राशिबद्ध कहते हों। एक समय में ज० एक और उ० १०८ सिद्ध हो सकते है, क्योंकि कहा भी है
बतीसा अडयाला सट्टी बावत्तरी य बोद्धव्वा ।
चुलसीई छन्नउई दुरहिय अत्तटु रसयं च ॥ नौवें समय में अन्तर पड़ जाना अवश्यंभावी है। अथवा १०८ किसी भी एक समय में सिद्ध होने के अनन्तर अन्तर पड़ जाना अनिवार्य है। राशिबद्ध सिद्धों के अनेक प्रकार हैं, उपर्युक्त लिखित भी उनका एक प्रकार है।
७. एकगुण-सिद्धों में सबसे थोड़े अतीर्थसिद्ध, असोच्चाकेवलिसिद्ध, स्त्रीतीर्थंकर सिद्ध, जघन्य अवगहना वाले सिद्ध, नपुंसकलिंगसिद्ध, गृहलिङ्गसिद्ध, पहली अवस्था में हुए सिद्ध, चरमशरीरीभत्र में पहली वार सम्यक्त्व प्राप्त करके होने वाले सिद्ध, इस प्रकार अनेक विकल्प किए जा सकते हैं। संभव है इस अधिकार में ऐसा ही वर्णन हो, इस कारण इस अधिकार को एक गुण कहा है, जिन क्यों के भेद ऊपर लिखे जा चुके है, वे सब वर्ग अनन्त-अनन्त हैं, संख्यात-असंख्यात नहीं।
८. द्विगुण-गणधर,आचार्य, उपाध्याय, शास्ता, तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, मण्डलीकनरेश इत्यादि पदवी के उपभोक्ता होकर यथाख्यात चारित्र के द्वारा कर्मों से मुक्त होने वाले सिद्ध, स्त्रीलिंगसिद्ध, सम्यक्त्व से प्रतिपाति होकर संख्यात भा तथा असंख्यात भव तक संसार में भ्रमण करके पंचमगति प्राप्तसिद्ध, पांच अनुत्तर विमानों से च्यवकर हुए सिद्ध इत्यादि अनेक विकल्प किए जा सकते हैं। संभव है इस अधिकार में ऐसा ही वर्णन हो। १. त्रिगुण-बुद्धबोधितसिद्ध, पुरुषलिंगसिद्ध, स्वलिंगसिद्ध, मध्यमावगहना वाले सिद्ध, सम्यक्त्व
परिभ्रमण करके पंचमगति प्राप्तसिद्ध, महाविदेह से हुए सिद्ध और तीर्थसिद्ध, संभव है इस अधिकार में पूर्वोक्त प्रकार से वर्णन हो, इसके भी अनगिनत भेद हैं। यहां तो केवल विषय • स्वरूप का दिग्दर्शन ही कराया गया है।
१०. केतुभत-यह पद दूसरी बार आया है। पहले की अपेक्षा यह पद अपना अलग ही महत्त्व रखता हैं । यहाँ से विषय का दूसरा मोड़ प्रारम्भ हो जाता है । जब जीव पहलीबार सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तब उसकी विचार धारा एक दम स्वच्छ एवं आनन्दवर्धक हो जाती है । शुभ इतिहास के सुनहले पन्ने भी यहीं से प्रारम्भ होते हैं । विकास की पहली भूमिका भी सम्यक्त्व ही है । विवेक की अखंड ज्योति भी सम्यक्त्व से जगती है । आत्मानुभूति की अजस्र पीयूषधारा भी सम्यक्त्व से ही प्रवाहित होती है । सम्यक्त्व से ही जीव वास्तविक अर्थ में आस्तिक बनता है । एक बार जीव सम्यग्दृष्टि बन जाता है, समयान्तर में फिर भले ही वह मिथ्यादृष्टि बन जाए, किन्तु वह किसी भी अशुभकर्मों की उत्कृष्ट स्थिति नहीं बान्धता, जब कि एकान्त मिथ्यादृष्टि बान्धता है । जो आत्मा कभी भी पहले सम्यग्दृष्टि नहीं बना और न मार्गानुसारी ही, उसे एकान्त मिथ्यादृष्टि कहते हैं । संसारावस्था में जब सिद्ध आत्माओं ने सम्यक्त्व प्राप्त किया, तभी से उनका