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परिशिष्ट २
विश्व में ऐसी कोई उपमा नहीं है, जो सिद्धों के साथ पूर्णतया घटित हो सके । अतः उन्हें अनुपम भी कहते हैं ।
जो निःसीम आध्यात्मिक सुख का अनुभव करते हैं और सदा एक रस में रमण करते हैं ऐसे सिद्धों को मोत्पन्नख भी कहते हैं ।
वे वैभाविक परिणति से तथा दोषलव से सर्वथा रहित हो गए हैं । अतः उन्हें अनवद्य भी कहते हैं ।
जन्म से रहित होने से अज वा अजन्मा, जरा से रहित होने के कारण अजर, मरण से रहित को अमर । इसी प्रकार निरंजन, निष्कलंक, निर्विकार, निर्वाणी, निरांतक, निर्लेप, निरामय, मुक्तात्मा परमात्मा, और निरुपाधिक ब्रह्म ये सब शब्द एकार्थक होने से सिद्ध भगवन्त के वाचक हैं। इस प्रकार यावन्मात्र शब्द सिद्धों के लिए प्रयुक्त सकते हैं, वे सब एकार्थकपद में समाविष्ट हो जाते हैं। हो सकता हैं, एकार्थ कपद में इस प्रकार सिद्धों का स्वरूपवर्णित हो ।
३. श्रर्थपद - जो अर्थ सिद्धों से सम्बन्धित हैं, ऐसे पदों को अर्थपद कहते हैं क्योंकि सिद्ध शब्द अनेक अर्थ में रूढ है, जैसे कि जिन्होंने अनेक विद्याएं सिद्ध की हुई हैं, वे विद्यासिद्ध कहलाते हैं, जिन्होंने कठोर साधना के द्वारा मंत्रसिद्ध किए हैं, वे मंत्रसिद्ध कहलाते हैं। जो शिल्पकला में परम निपुण बन गए हैं, वे शिल्पसिद्ध कहलाते हैं । जिनके मनोरथ पूर्ण हो गए हैं, उन्हें मनोरथ सिद्ध कहते हैं। जिनकी यात्रा निर्वि घनता से सफल हो गई, उन्हें यात्रा सिद्ध कहते हैं। जिनका जीवन ही आगम-शास्त्रमय हो गया है, उन्हें, आगम सिद्ध कहते हैं । जो कृषि-वाणिज्य, भवननिर्माण आदि करने में निपुण है, वे कर्मसिद्ध कहाते हैं । जिनके कार्य निर्विघ्नता से सिद्ध हो गए हैं, उन्हें कार्यसिद्ध कहते हैं । जिन्होंने विधिपूर्वक तप करके अनेक सिद्धियां प्राप्त की हैं, उन्हें तप सिद्ध कहते हैं । जिन्हें जन्म से ही ज्ञान और लब्धि उत्पन्न हो रही हैं, वे जन्म सिद्ध कहलाते हैं । जिन्होंने तप और संयम से अष्टविध कर्मों का सर्वथा क्षय करके सिद्धत्व प्राप्त किया है उन्हें कर्म क्षय सिद्ध कहते हैं। इस प्रसंग में कर्मक्षय सिद्ध का ही अधिकार है, अन्य सिद्धों का नहीं । अथवा नाम सिद्ध, स्थापनासिद्ध द्रव्यसिद्ध और भावसिद्ध इनमें जो अर्थ भाव सिद्ध से सम्बन्धित है, वही अर्थ यहाँ अभीष्ट है । इसी को अर्थपद कहते हैं ।
४. पृथगाशपद - सभी सिद्धों ने आकाश प्रदेश समान रूप से अवगाहित नहीं किए, क्योंकि सबकी अवग़ना समान नहीं है । जघन्य अवगहना वाले सिद्धों ने जितने आकाश प्रदेश अवगाहित किए हुए हैं, वे अनन्त हैं । जो एक प्रदेश अधिक अवगाहित हैं, वे भी अनन्त हैं । इसी प्रकार जो दो प्रदेश अधिक अवगहित हैं, वे भी अनन्त हैं। इसी क्रम से एक-एक प्रदेश बढाते हुए वहाँ तक बढाना है, जहां तक उत्कृष्ट अवगहना वाले सिद्धों ने अवगाहे हुए हैं, अन्ततोगत्वा वे सिद्ध भी अनन्त हैं । इस प्रकार का विवेचन जिस अधिकार में हो, उसे पृथगाकाश पद कहते हैं ।
५. केतुभूत - केतु, ध्वज को कहते हैं, भूत शब्द सदृश का वाचक है । जैसे ध्वज सर्वोपरि होता है, वैसे ही संसारी जीवों की अपेक्षा सिद्ध भगवान केतु-ध्वज के तुल्य सर्वोपरि हैं। क्योंकि वे उन्नति के चरमान्त में अवस्थित हो गए हैं इस प्रकार सिद्धों के विषय में निरूपण करने वाले अधिकार को केतुभूत कहते हैं । कौन-से गुणों से वे केतुभूत हुए हैं ? इसका उत्तर इसमें वर्णित है ।