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द्वादशाङ्ग-परिचय
. छाया--१. अक्षरसंज्ञि-सम्यक, सादिकं खलु सपर्यवसितञ्च ।
गमिकमङ्गप्रविष्ट, सप्ताऽप्येते सप्रतिपक्षाः ॥६३।। ' २. आगमशास्त्रग्रहणं, यद्बुद्धिगुणैरष्टभिर्दष्टम्।
ब्रुवते श्रुतज्ञानलाभ, तत्पूर्वविशारदा धीराः ॥१४॥ ३. शुश्रूषते प्रतिपृच्छति, शृणोति गृह्णाति चेहते वाऽपि ।
ततोऽपोहते वा धारयति, करोति वा सम्यक् ।।१४।। ४. मूकं हुंकारं बाढंकारं, प्रतिपृच्छां विमर्शम् । __ततः प्रसङ्गपरायणं च, परिनिष्ठा सप्तमके ॥१३॥ ५. सूत्रार्थः खलु प्रथमः, द्वितीयो नियुक्ति-मिश्रितो भणितः ।
तृतीयश्च, निरवशेषः, एष विधिर्भवत्यनुयोगे ॥१७॥ तदेतदङ्गप्रविष्टम्, तदेतच्छ तज्ञानम्, तदेतत्परोक्षज्ञानम्,
सैषा नन्दी समाप्ता पदार्थ-अक्खर-अक्षरश्रुत-अनक्षरश्रुत, सन्नी-संज्ञीश्रुत-असंज्ञीश्रुत, सम्म–सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत, साइयं-सादि और अनादि श्रुत, खलु-अवधारणार्थ च-और सपज्जवसि-सपर्यवसितअपर्यवसित, गमिअं-गमिक और अगमिक अंगपविटु-अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य एए-ये सपवडिवक्खा-सप्रतिपक्ष १४ भेद हैं।
श्रागमसत्थग्गहणं-आगम शास्त्र का अध्ययन जं-जो अट्टहिं बुद्धिगुणेहिं-बुद्धि के आठ गुणों से दिटुं-देखा गया है, तं-उसको पुम्वविसारया धीरा-पूर्व विशारद धीर आचार्य सुअनाणलंभं- श्रुतज्ञान का लाभ बिंति-कथन करते हैं।
. वे आठ गुण - सुस्सूसइ-विनययुत गुरु के वचन सुनने वाला, पडिपुच्छइ-विनययुत, प्रसन्नचित होकर पूछता है, सुणेइ-सावधानी से सुनता है, अ-और गिरह इ-सुनकर अर्थ ग्रहण करता है, ईहए याऽवि-ग्रहण के पश्चात् पूर्वापर अविरोध से पर्यालोचन करता है, च-समुच्चय अर्थ में, अपि से पर्यालोचन ग्रहण किया गया है, तत्तो-तत्पश्चात् अपोहए व-"यह ऐसा ही है" इस प्रकार विचारकर फिर धारेइ-सम्यक् प्रकार से धारण करता है वा–अथवा करेइ वा सम्म–सम्यक्तया यथोक्त अनुष्ठान करता है।
सुनने की विधि-मूग्रं-मूक बन कर सुने, हुंकारं वा–अथवा 'हुँ'-ऐसे कहे, अथवा 'तहत्ति' कहे, फिर बाढंक्कारं-यह ऐसे ही है, पडिपच्छइ-फिर पूछता है, पुनः वीमंसा-विमर्श अर्थात् विचार करे, तत्तो-तत्पश्चात् पसंगपरायणंच-उत्तर उत्तरगुण के प्रसंग में पारगामी होता है परिणि? सत्तमएपुनः गुरुवत् भाषण-प्ररूपण करे, ये सात गुण सुनने के हैं।
व्याख्यान की विधि-सुत्तत्थो खलु पढमो--प्रथम अनुयोग सूत्र व अर्थ रूप, 'खलु' अवधारणार्थ में है, बीअो-दूसरा अनुयोग सूत्र स्पर्शिक नियुक्ति मिश्र, भणियो-कहा गया है य-और तइओ
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