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द्वादशाङ्ग-परिचय
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इसी प्रकार यह द्वादशाङ्गरूप गणिपिटक-कभी न था, वर्तमानमें नहीं है, भविष्य में नहीं होगा, ऐसा नहीं है । भूत में था, अब है और आगे भी रहेगा। यह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है ।
वह संक्षेप में चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, जैसे-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भावसे, इनमें
द्रव्य से श्रुतज्ञानी-उपयोग से सब द्रव्यों को जानता और देखता है । क्षेत्र से श्रुतज्ञानी-उपयोग से सब क्षेत्र को जानता और देखता है। काल से श्रुतज्ञानी-उपयोग सहित सर्वकाल को जानता और देखता है। भाव से श्रुतज्ञानी-उपयोगपूर्वक सब भावों को जानता और देखता है ।सूत्र ५७ ॥
टीका-इस सूत्र में सूत्रकर्ता ने द्वादशाङ्ग सूत्रों को नित्य सिद्ध किया है । जिस प्रकार पञ्चास्ति काय का अस्तित्व तीन काल में रहता है, उसी प्रकार द्वादशाङ्ग गणिपिटक का अस्तित्व भी सदा भावी है । इस के लिए सूत्रकार ने ध्रुव-नियत-शाश्वत-अक्षय-अव्यय अवस्थित और नित्य इन पदों का प्रयोग किया है । पञ्चास्तिकाय और द्वादशाङ्ग गणिपिटक इन की समानता सात पदों से की है, जैसे कि पञ्चास्तिकाय द्रव्याथिक नय से नित्य है, वैसे ही गणिपिटक भी नित्य है। इसका विशेष विवरण उदाहरण, दृष्टान्त और उपमा आदि के द्वारा निम्न लिखित से जानना चाहिए---
१-व-जैसे मेरु सदाकालभावी ध्रुव है, अचल है, वैसे ही गणिपिटक भी ध्रुव है। २-नियत-सदा-सर्वदा जीवादि नवतत्त्व का प्रतिपादक होने से नियत है ।
३-शाश्वत-इस में पञ्चास्तिकाय का वर्णन सदा काल से आ रहा है, इसलिए गणिपिटक भी शाश्वत है।
४-अक्षय-जैसे गङ्गा-सिन्धु महानदियों का निरन्तर प्रवाह होने पर भी उन का मूल स्रोत अक्षय है, वैसे ही अनेक शिष्यों को वाचना प्रदान करने पर भी अक्षय है, अखूट भण्डार है, वह क्षय होने वाला नहीं है।
५-अव्यय-जैसे मानुषोत्तर पर्वत से बाहिर जितने समुद्र हैं, वे सब अव्यय रहते हैं, उनमें न्यूनाधिकता नहीं होती, वैसे ही द्वादशाङ्ग गणिपिटक भी अव्यय है।
६-अवस्थित-जैसे जम्बूद्वीप आदि महाद्वीप अपने प्रमाण में अवस्थित हैं, वैसे ही बारह अंग सूत्र भी अवस्थित हैं।
७-नित्य-जैसे आकाश आदि द्रव्य नित्य हैं, वैसे ही द्वादशाङ्ग गणिपिटक भी सदा काल भावी है।
ये सभी पद द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से गणिपिटक और पञ्चास्तिकाय के विषय में कथन किए गए हैं। पर्यायाथिक नय की अपेक्ष- से द्वादशाङ्ग गणिपिटक का वर्णन सादि-सान्त आदि श्रुत में किया जा चुका है । इस कथन से ईश्वर कर्तृत्ववाद का भी निषेध हो जाता है । इस सूत्र में पञ्चास्तिकाय को द्रव्याथिक नय से अनादि एवं नित्य बताए हैं । इतना ही नहीं बल्कि संक्षेप से श्रुतज्ञानी के विषय भेद कथन किए गए हैं । क्योंकि श्रुतज्ञान छपस्थ जीव के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं पाया जाता। श्रुतज्ञान का विषय