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नन्दीसूत्रम्
वचन या संयम का वर्णन विस्तृत और असत्य-मिश्र ये प्रतिपक्ष हैं, असंयम भी प्रतिपक्ष के साथ वर्णन करने वाला है । इसके १ करोड ६ पद हैं ।
७. प्रात्मप्रवादपूर्व—यह पूर्व अनेक प्रकार के नयों से आत्मा का वर्णन करने वाला है । इसमें२६ कोटि पद हैं।
८. कर्मप्रवादपर्व-इसमें कर्मों की ८ मूल तथा उनकी उत्तर प्रकृतियो का बन्ध, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश, ध्रुव-अध्रुव-जीव विपाकी, क्षेत्रविपाकी, पुद्गल विपाकी, निकाचित, निधत्त अपवर्तन, उद्वर्तन एवं संक्रमण आदि अनेक विषयों का विवेचन है । इसके १ करोड ८० लाख पद हैं। '
1. प्रत्याख्यानपूर्व—यह मूलगुणप्रत्याख्यान, उत्तरगुणप्रत्याख्यान, देशप्रत्याख्यान, सर्वप्रत्याख्यान तथा उनके भेद-प्रभेद एवं उपभेदों का वर्णन करने वाला पूर्व है, इसके ८४ लाख पद हैं।
१. विद्यानुप्रवादपर्व-इसमें अनेक प्रकार की अतिशायिनी विद्याओं का वर्णन है। साधन की अनुकूलता से ही उनकी सिद्धि कही गई है । इसके १ करोड १० लाख पद हैं।
११. अबन्ध्यपूर्व—इसमें ज्ञान, संयम और तप इत्यादि सभी शुभ क्रियाएं शुभ फलवाली हैं और प्रमाद, विकथा आदि कर्म अशुभ फलदायी हैं। इसीलिए इसको अबन्ध्य कहा है। इसके २६ करोड़ पद परिमाण हैं।
१२.प्राणायुपूर्व-इसमें आयु और प्राणों का निरूपण किया है। उनके भेद प्रभेदोंका सविस्तर वर्णन है । उपचार से इस पूर्व को भी प्राणायु कहते हैं । इसमें अधिकतर आयु जानने का अमोघ उपाय हैं । मनुष्य, तिर्यंच, और देव आदि की आयु को जानने के नियम बताए हुए हैं। इसके एक करोड़ ५६ लाख पद परिमाण हैं।
१३. क्रियाविशालपूर्व-जीव क्रिया और अजीव क्रिया तथा आश्रव का वर्णन करने से इसकी क्रियाविशाल संज्ञा दी है। इसके पद परिमाण ६ करोड़ हैं।
१४. लोकबिन्दुसार-सर्वाक्षर सन्निपात आदि लब्धियों और विशिष्ट शक्तियों के कारण विश्व में या श्रुतलोक में यह अक्षर के बिन्दु की तरह सर्वोत्तम सार है। अतः लोग इसे बिन्दुसार कहते हैं। इसके पद परिमाण साढ़े बारह करोड़ हैं।
उपरोक्त यह विवरण वृत्तिकार ने चूणि से लिया है। जिज्ञासुओं की जानकारी के लिए एतद्विषयक समग्रपाठ चूर्णि का यहां उद्धृत किया जा रहा है-.
"से कि तं पुव्वयं ? उच्यते जम्हा तिस्थगरो तित्थप्पवत्तण काले गहणरा सम्बसुत्ताधारत्तणतो पुब्वं पुब्वगत सुत्तत्थं भासइ, तम्हा पुब्वं ति भणिता, गणहरा सुत्तरयणं करेन्ता आयाराइक्कमेण रयणं करेन्ति, ठवेन्ति य । अण्णायरियमतेण पुण पुष्वगत सुत्तत्यो पुव्वं अरहता भणिया गणहरे वि -पुत्वगतसुत्तं चैव पुव्वं रइयं, पच्छा पायाराइ एवमुत्तो, चोदक आहणणु पुव्वावरविरुद्धं कम्हा ? जम्हा आयार णिज्जुत्तीए भणन्ति, सब्वेसि-पायारो पढमो० गाहा । प्राचार्य आह-सत्यमुक्तं, किन्तु साठवणा, इमं पुण अक्खर रयणं पदुरच भणितं, पुब्वं पुब्बा कया इत्यर्थः । ते य उपाय पुवादय चोइस पुग्वा पण्णत्ता। .
-पदम उप्पाय पुवं ति-तत्थ सम्बदन्वाणं पज्जयाणं य उप्पायभावमङ्गी का पण्णवणा कया, तस्स पद परिमाणं एकापदकोडी।