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________________ द्वादशाश-परिचय करने में समर्थ उदारचेता, आदि गुणसम्पन्न गणधर दीक्षित होते हैं,'. तब मातृका पद के सम्बोध से उनको जो ज्ञान उत्पन्न होता है, इसी कारण उनको पूर्व कहते हैं, जो चूर्णिकार ने लिखा है-सव्वेसिं मायारो पडमो" अर्थात् सबसे पहले आचाराङ्ग सूत्र निर्माण हुआ है, क्योंकि सब अङ्गसूत्रों में आचाराङ्ग की गणना प्रथम है। और वैदिक परम्परा में भी कहा है कि प्राचारः प्रथमो धर्मः । ऊपर लिख आए कि पूर्वो का ज्ञान पहले होता है। इसलिए उन्हें पूर्व कहते हैं। इससे जिज्ञासुओं के मन में पूर्व-अपर विरोध प्रतीत होता है । परन्तु इस विरोध का निराकरण इस प्रकार किया जाता है, तीर्थंकर के द्वारा तीर्थ की स्थापना करते समय जिन्हें पहले पूर्वो का ज्ञान हो गया, वे गणधर बनते हैं । वे अङ्गों का अध्ययन क्रमशः नहीं करते, उन्हें तो पहले ही पूर्वो का ज्ञान होता है। वे गणधर शिष्यों को पढ़ाने के लिए ११ अङ्ग सूत्रों की रचना करते हैं, तदनन्तर दृष्टिवाद का अध्ययन कराते हैं । इस विषय पर वृत्तिकार के शब्द हैं" से कि तमित्यादि अथ किं तत्पूर्वगतं १ इह. तीर्थकरस्तीर्थप्रवर्तनकाले गणधरान् सकलश्रुतावगाहनसमर्थानधिकृत्य पूर्व पूर्वगतसूत्राथं भाषते, ततस्तानि पूर्वाण्युच्यन्ते । गणधराः पुनः सूत्ररचनां विदधतःभाचारादि क्रमेण विदधति स्थापयति वा । अन्ये तु व्याचक्षते-पूर्व पूर्वगतसूत्रार्थमहन भाषते, गणधरा अपि पूर्व पूर्वगतसूत्रं विरचन्ति , पश्चादाचारादिकम्,-अत्र चोदक आह नन्विदं पूर्वापरविरुद्धं यस्मादादौ नियुक्तावुक्तं-सम्वेसि आयारो पढमो इत्यादि सत्यमुक्तं, किन्तु तत्स्थापनामधिकृत्योक्तमक्षररचनामधिकृत्य पुनः पूर्व, पूर्वाणि कृतानि, ततो न कश्चित् पूर्वापरविरोधः।" यद्यपि मूल सूत्र में चौदह पूर्वो के नामोल्लेख मिलते हैं, इसके अतिरिक्त उनके अन्तर्गत विषय, पद परिमाण, इत्यादि विषयों का न प्रस्तुत सूत्र में और न अन्य आगमों में इसका उल्लेख मिलता है, तदपि चूर्णिकार और वृत्तिकार निम्न प्रकार से उनके विषय, पदपरिणाम, ग्रंथान इत्यादि के विषय में कहते हैं १. उत्पादपूर्व-इसमें सब द्रव्य और पर्यायों के उत्पाद-उत्पत्ति की प्ररूपणा की गई है, इसमें एक करोड़ पदपरिणाम है। . २. अग्रायणीयपूर्व-सभी द्रव्यपर्याय और जीव विशेष के अग्र-परिमाण का वर्णन किया गया है, इसके ९६ लाख पद हैं। ३. वीर्यप्रवादपूर्व-सकर्म या निष्कर्म जीव तथा अजीव के वीर्य अर्थात् शक्ति विशेष का वर्णन है तथा ७० लाख इसके पद हैं। ४. प्रस्तिनास्ति प्रवादपूर्व-यह वस्तुओं के अस्तित्व और खपुष्प वत् नास्तित्व तथा प्रत्येक द्रव्य में स्वरूप से अस्तित्व और पररूप से नास्तित्व प्रतिपादन करता है। इसके ६० लाख पद हैं। ५. ज्ञानप्रवादपूर्व-मति आदि पांच ज्ञान का इसमें विस्तृत वर्णन है । इसके पद परिमाण एक कम एक कोटी है। ६. सत्यप्रवादपूर्व-इसमें सत्य, असत्य, मिश्र एवं व्यवहार भाषा का वर्णन है । मुख्यतया सत्य . १. "उप्पन्ने इवा, विगमे । वा, धुवेह," इनको मातृकापद या त्रिपदी भी कहते हैं । -
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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