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द्वादशाङ्ग परिचय
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स्थाने टङ्कानि कूटानि, शैलाः, शिखरिणः, प्राग्भाराः, कुण्डानि, गुहाः, आकराः, द्रहाः, आख्यायन्ते ।
स्थाने परीता वाचनाः, संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि संख्येया वेढा : ( वृत्तयः ), संख्येयाः श्लोकाः, संख्येया नियुक्तय: संख्येयाः, संग्रहण्यः, संख्येयाः प्रतिपत्तयः ।
तदङ्गार्थतया तृतीयमङ्गम्, एकः श्रुतस्कन्धः, दशाऽध्ययनानि, एकविंशतिरुद्देशन कालाः, एकविंशतिः समुद्देशनकाला:, द्वासप्ततिः पदसहस्राणि पदाग्रेण संख्येयान्यक्षराणि, अनन्ता गमाः, अनन्ताः पर्यवाः, परीतास्त्रसाः, अनन्ताः स्थावराः, शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचिता जिनप्रज्ञप्ता भावा आख्यायन्ते, प्रज्ञाप्यन्ते, प्ररूप्यन्ते, दर्श्यन्ते, निदर्श्यन्ते उपदर्श्यन्ते ।
स एवमात्मा एवं ज्ञाता एवं विज्ञाता, एवं चरण- करण - प्ररूपणाऽऽख्यायते, तदेतत्स्थानम् ।। सूत्र ४८ ।।
भावार्थ - शिष्य ने पूछा - भगवन् ! वह स्थानाङ्गश्रुत क्या है ? आचार्य उत्तर में बोले— स्थानाङ्ग में अथवा स्थानाङ्ग के द्वारा जीव स्थापन किए जाते हैं, अजीव स्थापन किए जाते हैं और जीवाजीव की स्थापना की जाती है । स्वसमय — जैन सिद्धान्त की स्थापना की जाती है, परसमय - जैनेतर सिद्धान्तों की स्थापना की जाती है एवं जैन व जैनेतर उभय पक्षों की स्थापना की जाती है। लोक, अलोक और लोकालोक की स्थापना की जाती है ।
स्थान में व स्थानाङ्ग के द्वारा टङ्क — छिन्नतट, पर्वतकूट, पर्वत, शिखरि पर्वत, कूटके ऊपर कुब्जा की भाँति अथवा पर्वत के ऊपर हस्तिकुम्भ की आकृति सदृश्य कुब्ज, गङ्गाकुण्ड आदि कुण्ड, पौण्डरीक आदि हद - तालाब, गङ्गा आदि नदिएं कथन की जाती हैं । स्थानाङ्ग में एक से ले कर दस तक वृद्धि करते हुए भावों की प्ररूपणा की गयी 1
स्थानाङ्गसूत्र में परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ - छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यातनिर्यु क्तियें, संख्यात संग्रहणियें और संख्यात प्रतिपत्तिएं हैं ।
वह अङ्गार्थ से तृतीय अङ्ग है । इसमें एक श्रुतस्कन्ध और दस अध्ययन हैं तथा २१ उद्देशनकाल और २१ ही समुद्देशन काल हैं । पदों की संख्या पदाग्र से ७२ हज़ार है । संख्यात अक्षर व अनन्त गम — पाठ हैं । अनन्त पर्याय, परिमित त्रस और अनन्त स्थावर हैं । शाश्वत-कृत- निबद्ध निकाचित जिनकथित भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापन, प्ररूपण, उपदर्शन, निर्दर्शन और दर्शित किए गए हैं ।
इस स्थानाङ्ग का अध्ययन करने वाला तदात्मरूप, ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार उक्त अङ्ग में चरण करणानुयोग की प्ररूपणा की गयी है । यह स्थानाङ्गसूत्र का वर्णन है ।। सूत्र ४८ ॥