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नन्दीसूत्रम्
अध्ययन - १ । २ । ३ । ४ । ५ । ६ । ७ । ८ । ६ । १० । ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । १६ । उद्देशक – ४ । ३ । ४ । २ । २ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । इस सूत्र में वचनाएं संख्यात हैं । अनुयोगद्वार, प्रतिपत्ति, वेष्टक, श्लोक, निर्युक्तियां और अक्षर ये सब संख्यात हैं । ३६००० पद हैं। इनकी व्याख्या पहले लिखि जा चुकी है। पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और स इनमें असंख्यात जीव हैं तथा वनस्पतिकाय में संख्यात असंख्यात और अनन्त जीव पाए जाते हैं। इन सबकी व्याख्या भली प्रकार से की गई है ।
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इसके अध्ययन करने से स्वमत, परमत तथा उभय मत का सुगमता से ज्ञान हो जाता है । आत्म
साधना और सम्यक्त्व को दृढ करने के लिए यह अङ्ग विशेष उपयोगी है ।
इस सूत्र पर भद्रबाहुकृत नियुक्ति जिनदासमहत्त रकृत भी उपलब्ध हैं । ३६३ मतों का खण्डन मण्डन की ओर विशेष की मलयगिरिकृत वृत्ति पठनीय है | सूत्र ४७॥
चूर्णि और शीलांकाचार्य की वृहद्वृत्ति रुचि रखने वाले जिज्ञासुओं को नन्दीसूत्र
३. श्रीस्थानाङ्गसूत्र
मूलम् - से किं तं ठाणे ? ठाणे णं जीवा ठाविज्जंति, प्रजीवा ठाविज्जंति, जीवाजीवा ठाविज्जंति ससमए ठाविज्जइ, परससए ठाविज्जइ, ससमए-परसमए ठाविज्जइ, लोए ठाविज्जइ, अलोए ठाविज्जइ, लोप्रालोए ठाविज्जइ ।
ठाणे णं टंका, कूडा, सेला, सिहरिणो, पब्भारा. कुण्डाई, गुहाओ, आगरा, दहा, नईओ, घविज्जंति 1
ठाणे णं परित्ता वायणा, संखेज्जा प्रणुप्रोगदारा, संखेज्जा वेढ़ा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाश्रो निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीप्रो, संखेज्जाम्रो पडिवत्तीनों ।
से णं अंगट्टयाए तइए अंगे, एगे सुक्खंधे, दस अज्झयणा, एगवीसं उद्देसणकाला, | एक्कवीसं समुद्दे सणकाला, बावत्तरिपयसहस्सा पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अनंता गमा, प्रणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासय-कड - निबद्ध-निकाइग्रा जिण-पण्णत्ता भावा प्राघविज्जंति, पण्णविज्जंति परूविज्जंति, दंसिज्जंति, निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जंति ।
से एवं आया, एवं नाया, एवं विष्णाया, एवं चरण-करण परूवणा प्राघविज्जइ, | से त्तं ठाणे | सूत्र ४८॥
छाया - अथ किं तत् स्थानम् ? स्थानेन जीवाः स्थाप्यन्ते, अजीवाः स्थाप्यन्ते, जीवाऽजीवाः स्थाप्यन्ते, स्वसमयः स्थाप्यते, परसमयः स्थाप्यते, स्वसमय-परसमयी स्थाप्येते, लोकः स्थाप्यते, अलोकः स्थाप्यते, लोकालोकौ स्थाप्येते ।