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द्वादशाङ्ग-परिचय
१. सत् पदार्थों की उत्पत्ति कौन जानता है ? और यह जानने से क्या लाभ ? २. असत् पदार्थों की उत्पत्ति कौन जानता है ? यह जानने से क्या प्रयोजन ? ३. सत्-असत् उभयात्मक पदार्थों की उत्पत्ति कौन जानता है ? और जानने से क्या लाभ ? ४. अवक्तव्य को कौन जानता है और जानने से भी क्या लाभ ?
इन चारों भेदों को पूर्वोक्त ६३ भेदों में मिलाने से ६७ संख्या होती है । पीछे के तीन भंग, पदार्थ - की उत्पत्ति होने पर, उनके अवयवों की अपेक्षा से होते हैं, वे उत्पत्ति में संभव नहीं हैं । अतः वे उत्पत्ति में नहीं कहे गए हैं। अज्ञानवादियों के मत में जीवादि नव पदार्थों के ७-७ भंग होते हैं और भाव की उत्पत्ति के सत्, असत्, सदसत् और अवक्तव्य ये चार भेद होते हैं। इन ६७ में से किसी एक की मान्यता, स्थापना करने वाला अज्ञानवादी है। ये सब अज्ञान से ही अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि और ज्ञान को दोष पूर्ण एवं निरर्थक बताते हैं।
. ४. विनयवादी-विनय करने से आत्मसिद्धि एवं मोक्ष प्राप्ति मानते हैं । इनके ३२ भेद होते हैं, वे इस प्रकार जानने चाहिएं।
देवता, राजा, यति, ज्ञाति, वृद्ध, अधम, माता, पिता, इन आठों की १. मन से, २. वचन से, ३. काय से, और दान से, तथा विनय करने से ही इष्टार्थ की पूर्ति मानते हैं। इस प्रकार ये आठ, चारचार प्रकार के होते हैं । अतः ये कुल मिलाकर ३२ प्रकार के होते हैं। इन क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञान वादी और विनयवादियों के भेदों को जोड़ने से कुल ३६३ भेद होते हैं।
यह सूत्र भी दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। उनके पुन: क्रमशः १६ और ७ अध्ययन हैं । पहला श्रुतस्कन्ध प्रायः पद्यमय है। सिर्फ एक १६ वें अध्ययन में गद्य का प्रयोग हुआ है । और दूसरे स्कन्ध में गद्य और पद्य दोनों पाए जाते हैं । इसमें गाथा और छन्द के अतिरिक्त अन्य छन्दों का भी उपयोग किया है, जैसे इन्द्रवजा, वंतालिक, अनुष्टुप् आदि । इस सूत्र में जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य मतों व वादों का विस्तृत निरूपण किया गया है। मुनियों को भिक्षाचरी में सतर्कता, परीषह-उपसर्गों में सहन शीलता, नरकों के दु:ख, महावीर स्तुति, उत्तम साधुओं के लक्षण, श्रमण, ब्राह्मण, भिक्षुक, निर्ग्रन्थ आदि शब्दों की परिभाषा अच्छी प्रकार से युक्ति, दृष्टान्त और उदाहरणों के द्वारा समझाई गई है।
दूसरे श्रुतस्कन्ध में जीव शरीर के एकत्व, ईश्वरकर्तृत्व और नियतिवाद आदि मतों का युक्तिपूर्वक खण्डन किया गया है।
पुण्डरीक के उदाहरण पर अन्य मतों का युक्तिसंगत उल्लेख करके स्वमत की स्थापना की गई है। १३ क्रियाओं का प्रत्याख्यान, आहार आदि का वर्णन विस्तार से किया गया है। पाप-पुण्य का विवेक, आर्द्रककुमार के साथ गोशालक, शाक्यभिक्षु, तापसों से हुए वाद-विवाद, आर्द्रकुमार के जीवन से सम्बन्धित विरक्तता और सम्यक्त्व में दृढता का रोचक वर्णन है । अन्तिम नालन्दीय नामक अध्ययन में नालन्दा में हए.गौतम गणधर और पार्श्वनाथ के शिष्य उदकपेढाल पुत्र का वार्तालाप और अन्त में पेढाल पुत्र के द्वारा चातुर्याम चर्या को छोड़कर पंचमहावत स्वीकार करने का सुन्दर वृत्तान्त है। प्राचीन मतों, वादों व दृष्टियों के अध्ययन की दृष्टि से यह श्रुतांग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस अंग में २३ अध्ययन और ३३ उद्देशक हैं, दूसरे श्रुतस्कन्ध में ७ अध्ययन और ७ उद्देशक हैं,
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