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नन्दीसूत्रम्
- टीका-इस सूत्र में स्थानाङ्गसूत्र का परिचय संक्षेप रूप में दिया गया है। 'ठाणे णं' यह मूलसूत्र है जो कि सप्तमी व तृतीया के रूप हो सकते हैं। इसका यह भाव है कि स्थानाङ्ग में जीवादि पदार्थों का वर्णन किया हुआ है अथवा एक से लेकर दश स्थानों के द्वारा जीवादि पदार्थ व्यवस्थापन किए गए हैं । इस विषय में वृत्तिकार लिखते हैं
"अथ किं तत्स्थानम् तिष्ठन्ति प्रतिपाद्यतया जीवादयः पदार्था अस्मिन्निति स्थान तथा चाह सूरिः 'ठाणेण' मित्यादि स्थानेन स्थाने वा 'ण' मिति वाक्यालंकारे जीवाः स्थाप्यन्ते-यथाऽवस्थितस्वरूपप्ररूपणया व्यवस्थाप्यन्ते ।"
यह श्रुताङ्ग दस अध्ययनों में विभाजित है । इसमें सूत्रों की संख्या हजार से अधिक है । इसमें २१ उद्देशक हैं । इसकी रचना पूर्वोक्त दो श्रुताङ्गों से विलक्षण तथा उनसे भिन्न प्रकार की है। यहाँ प्रत्येक अध्ययन में जैन दर्शनानुसार वस्तु संख्या गिनाई गई हैं, जैसे
१. पहले अध्ययन में 'एगे आया' आत्मा एक है, इत्यादि एक-एक पदार्थों का वर्णन किया है।
२. दूसरे अध्ययन में विश्व के दो २ पदार्थों का वर्णन है, जैसे कि जीव और अजीव, पुण्य और पाप, धर्म और अधर्म, आत्मा और परमात्मा इत्यादि ।
३. तीसरे अध्ययन में सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र का निरूपण तथा धर्म, अर्थ, काम ये तीन प्रकार की कथाएं बताई गयी हैं। तीन प्रकार के पुरुष होते हैं-उत्तम, मध्यम, जघन्य । धर्म तीन प्रकार का होता है-श्रतधर्म, चारित्र धर्म और अस्तिकायधर्म इस प्रकार अनेकों ही त्रि कही गई हैं।
४. चौथे अध्ययन में चातुर्याम धर्म आदि सात सौ चतुर्भङ्गियों का वर्णन है। ५. पांचवें स्थान में पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच गति, पांच इन्द्रिय इत्यादि । ६. छठे स्थान में छः काय, छः लेश्याएं, गणी के छः गुण, षड्द्र व्य, और छः आरे इत्यादि ।
७. सातवें स्थान में अल्पज्ञोंके तथा सर्वज्ञ के ७ लक्षण, सप्त स्वरों के लक्षण, सात प्रकार का विभंग ज्ञान, इस प्रकार अनेकों ही सात-सात प्रकार के पदार्थों का सविस्तर वर्णन है।
____८. आठवें स्थान में एकलविहारी तब हो सकता है, यदि वह आठ गुण सम्पन्न हो। ८ विभक्तियों का विवरण,अवश्य पालनीय आठ शिक्षाएं । इस प्रकार अनेकों शिक्षाएं आठ संख्यक दी हुई हैं।
६. नवें स्थान में नव बाड़ें ब्रह्मचर्य की, महावीर के शासन में नव व्यक्तियों ने तीर्थंकर नाम गोत्र बांधा है, जो अनागत काल की उत्सर्पिणी में तीर्थंकर बनेंगे, जिनके नाम इहभविक ये हैं-राजा श्रेणिक, सुपाश्र्व, उदायी, प्रोष्ठिल, दृढायु, शंख, शतक, सूलसा, रेवती। इन के अतिरिक्त नौ-नौ संख्यक अनेकों ही ज्ञेय, हेय, उपादेय शिक्षाएँ वर्णित हैं।
१०. दसवें स्थान में दस चित्तसमाधि, दस स्वप्नों का फल, दस प्रकार का सत्य, दस प्रकार का असत्य, दस प्रकार की मिश्र भाषा, दस प्रकार का श्रमणधर्म, दस स्थानों को अल्पज्ञ नहीं सर्वज्ञ जानते हैं। इस प्रकार दस संख्यक अनेकों वर्णनीय विषयों का उल्लेख किया गया है। यह तीसरा अङ्ग सूत्र दस अध्ययनात्मक है । इक्कीस उद्देशन काल हैं । ७२ हजार पद परिमाण हैं । इस सूत्र में नाना प्रकार के विषयों का संग्रह है, यदि इसे भिन्न २ विषयों का कोष कहा जाए तो कोई अनुचित नहीं होगा। यह अङ्ग जिज्ञासुओं के अवश्य पठनीय है । शेष वर्णन भावार्थ में लिखा जा चुका है ।सूत्र ४८॥
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