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गमिक - श्रगमिक, अङ्गप्रविष्ट अङ्गबाहिर
सब्वजीवाणं पि य णं श्रक्खरस्स अांत भागो निच्चुग्घाडियो । -
इस सूत्र में
आए हुए इस पाठ की व्याख्या यद्यपि हम पहले कर चुके हैं, तदपि इस पाठ से सम्बन्धित सभाष्य तत्त्वार्थाधगम में दी गई एक टिप्पणी इस पाठ को बिल्कुल स्पष्ट करती है, पाठकोंकी जानकारी के लिए अक्षरशः यहाँ उसका उद्धरण दिया जा रहा है " जैसे कि सभी जीवों के अक्षर के अनन्तवें भाग प्रमाण ज्ञान कम से कम नित्य उद्घाटित रहता ही है, यह ज्ञान निगोदिया के जीवों में ही पाया जाता है । इसको पर्यायज्ञान तथा लब्धि- अक्षर भी कहते हैं । क्योंकि लब्धि नाम ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम
विशुद्धि का है और अक्षर नाम अविनश्वर का है, ज्ञानावरणकर्म का इतना क्षयोपशम तो रहता ही है, अत एव इसको लब्ध्यक्षर भी कहते हैं । इसे स्पष्ट करने के लिए उदाहरण है ६५५३६ को पण्णट्ठी कहते हैं । ६५५३६ को पट्टी से गुणा करने पर जो गुणन फल निकलता है, उसे वादाल कहते हैं । उसकी संख्या यह है—४,२६,४६,६७,२,ε६, । वादाल को वादाल से गुणा करने पर जो गुणन फल निकले, उसे एकट्ठी कहते हैं, जैसे कि १८४४६७४४०७३७०६५५१६१६ | केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों में एक कम एकट्ठी का भाग देने से जो लब्ध आए, उतने अविभाग प्रतिच्छेदों के समूह को अक्षर कहते हैं । इस अक्षर प्रमाण में अनन्त का भाग देने से जितने अभिभाग प्रतिच्छेद लब्ध आएं, उतने अविभाग प्रतिच्छेद पर्याय ज्ञान में पाए जाते हैं । वे नित्योद्घाटित हैं ।" यह सादि-अनादि, सान्त-अनन्तश्रुत का विवरण सम्पूर्ण हुआ ।। सूत्र ४३||
११-१२,१३-१४. गमिक - अगमिक, अङ्गप्रविष्ट- अङ्गबाहिर,
मूलम् — से किं तं गमिश्रं ? गमिश्रं दिट्टिवाओ । से किं तं प्रगमित्रं ? अगमि -कालिनं सुनं । से त्तं गमियं से त्तं श्रगमिश्रं ।
अहवा तं समासओ दुविहं पण्णत्तं तं जहा – अंगपविट्ठ ं ? अंगबाहिरं च २ ।
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से किं तं अंगबाहिरं ? अंगबाहिरं दुविहं पण्णत्तं तं जहा - १. श्रावस्सयं च २. प्रवस्सय- वइरित्तं च ।
१. से किं तं प्रवस्यं ? आवस्सयं छव्विहं पण्णत्तं तं जहा-
१. सामाइयं. २. चउवीसत्थवो, ३. वंदणयं, ४. पडिक्कमणं, ५. काउस्सग्गो, ६. पच्चक्खाणं- से त्तं प्रवस्सयं ।
छाया - ११. अथ किन्तद् गमिकम् ? गमिकं दृष्टिवादः ।
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तदगमिकम् ।
बाह्यञ्च २ ।
१२. अथ किन्तदगमिकम् ? अगंमिकं कालिकं श्रुतम्, तदेतद् गमिकम्, तदे
अथवा तत्समासतो द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - १३-१४ अङ्गप्रविष्टम् १, अङ्ग