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नन्दीसूत्रम्
पदार्थ उनसे भिन्न परपर्याय युक्त हैं किन्तु अकार आदि वर्ण केवलज्ञान की सर्व पर्यायों का अनन्तव भाग जानना चाहिए ।
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वस्तुतः देखा जाए तो यहाँ अक्षर श्रुत का विषय है, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का परस्पर अविनाभावी सम्बन्ध है । इसलिए यहाँ दोनों ही ग्रहण किए गए हैं। अतः सर्व जीवों के अक्षर का अनन्तवां भाग खुला रहता है, जिसको श्रुतज्ञान कहा जाता है । यदि वह भी अनन्त कर्म वर्गणाओं से आवृत हो जाए, फिर तो जीव, अजीव के रूप में परिणत हो जाएगा । परन्तु ऐसा होता नहीं । जैसे बहुत सघन श्याम घटा से अच्छादित होने पर भी चन्द्र-सूर्य की प्रभा, सर्वथा आवृत्त नहीं हो सकती, कुछ न कुछ प्रकाश रहता ही है । इसी प्रकार अनन्त ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्म परमाणुओं से प्रत्येक आत्मप्रदेश आवेष्टित होने पर भी चेतना का सर्वथा अभाव नहीं होता, इसलिए कहा है-मतिपूर्वकश्रुंत सर्वजघन्य अक्षर के अनन्तवें भागमात्र तो नित्य उद्घाटित रहता ही है ।
सूक्ष्म निगोद में रहे हुए जीव में भी श्रुत यत्किंचित् रहता ही है, वहां भी श्रुत या चेतना सर्वथा लुप्त नहीं होती ।
वृत्तिकार इस विषय को निम्न शब्दों में लिखते हैं
" सन्वागासेत्यादि सर्व च तदाकाशञ्च सर्वाकाशं, लोकाकाश मित्यर्थः, तस्य प्रदेशाः - निर्विभागाभागाः सर्वाऽऽकाशप्रदेशास्तेषामग्र - प्रमाणं सर्वाकाशप्रदेशाग्रं, तत्सर्वाकाशप्र देशैरनन्तगुणितम् - अनन्तशो गुणितमेकैकस्मिन्ना काशप्रदेशेऽनन्तागुरुलघुपर्यायभावात् पर्यायाग्राक्षरं निष्पद्यते - पर्यायपरिमाणाक्षरं
निष्पद्यते ।
इयमत्रभावना -- सर्वाकाशप्रदेश परिमाणं सर्वा काशप्रदेशैरनन्तशो गुणितं यावत्परिमाणं भवति, तावत् परिमाणं सर्वाकाशपर्यायाणामयं भवति, एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे यावन्तोऽगुरुलघुपर्यायास्ते सर्वेऽपि एकत्र पिडिता एतावन्तो भवन्तीत्यर्थः, एतावत् प्रमाणं चाक्षरं भवति ।
इह स्तोकत्वाद्धर्मास्तिकायादयः साक्षारसूत्रे नोक्ताः, परमार्थतस्तु तेऽपि गृहीत्वा द्रष्टव्याः, ततोऽयमर्थः सर्वद्रव्य प्रदेशाम सर्वद्रव्य प्रदेशैरनन्तशो गुणितं यावत्परिमाणं भवति तावत्प्रमाणं सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं एतावत्परिमाणं चाक्षरं भवति, तदपि चाक्षरं द्विधा - ज्ञानमकारादिवर्णजातं च, उभयत्रापि श्रक्षर, शब्दप्रवृत्ते रूढत्वाद्, द्विविधमपि चेहगृह्यते विरोधाभावात् ।" ननु ज्ञानं सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं सम्भ वतु, यतो ज्ञानमिहाविशेषोक्तौ सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणतुल्यताऽभिधानात् प्रक्रमाद्वा केवलज्ञानं ग्रहीष्यते, तच्च सर्वद्रव्य पर्यायपरिमाणं घटत एवेत्यादि । :
केवलज्ञान स्वर्पायों से ही सर्व द्रव्यपर्याय परिमाण कथन किया गया है, किन्तु 'अ' कार आदि वर्ण स्व-पर पर्यायों से ही सर्व द्रव्यपर्याओं के परिमाण तुल्य कथन किये गए हैं, जैसे कि भाष्यकार लिखते हैं ।
सय
सय पज्जएहिं उ केवलेण, तुल्लं न होइ न परेहिं । पर पज्जा एहिं तु तं तुल्लं केवलेणेव ॥ स्वपर्यायैस्तु केवलेन तुल्यं न भवति न परेः ॥ स्वपर पर्यायैस्तु
तत्तुल्यं
केवलेनैव ॥