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सादि- सान्त, अनादि अनन्तत
पर्यायाक्षर
सर्वाकाश प्रदेशों को सर्वाकाश प्रदेशों से एक बार नहीं, दस बार नहीं, सौ बार नहीं, संख्यात बार नहीं उत्कृष्ट असंख्यात बार नहीं, प्रत्युत अनन्तबार गुणाकार करने से, फिर प्रत्येक आकाश प्रदेश में जो अनन्त अगुरुलघु पर्याय हैं, उन सब को मिलाकर पर्यायाचर निष्पन्न होता है। धर्मास्तिकाय आदि के प्रदेश स्तोक होने से सूत्रकार ने उनका ग्रहण नहीं किया, उपलक्षण से उन का भी ग्रहण करना चाहिए ।
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अक्षर दो प्रकार से वर्णन किए जाते हैं, ज्ञान रूप से और अकार आदि वर्ण रूप से यहां दोनों काही ग्रहण करना चाहिए । अक्षर शब्द से केवलज्ञान ग्रहण किया जाता है, अनन्त पर्याय युक्त होने से लोक में यावन्मात्र रूपी द्रव्यों की गुरुलघु पर्याय हैं और यावन्मात्र अरूपी द्रव्यों की अगुरुलघु पर्याय हैं, उन सब पर्यायों को केवलज्ञानी हस्तामलकवत् जानते व देखते हैं अर्थात् यावन्मात्र परिच्छेय पर्याय हैं, तावन्मात्र परिच्छेदक, उस केवलज्ञान के जानने चाहिएं। सारांश इतना ही है कि सर्वद्रव्य, सर्व पर्यायपरिमाण केवलज्ञान उत्पन्न होता है। इसी प्रकार अकार आदि वर्ण स्व-पर पर्याय भेद से भिन्न सर्वद्रव्य पर्याय परिमाण समझना चाहिए, जैसे कि भाष्यकार लिखते हैं
"एक्केक्कमक्खरं पुरा स पर पज्जाय मेयच भिन्नं ।
तं सत्र दब्ज पज्जाय,
रासिमाणं मुखेधवं ॥”
जो वर्ण पर्याय है, वह सर्वद्रव्य पर्यायों के अनन्तवें भाग मात्र है, जैसे मनुदात्त: और स्वरित्त के भेद से तीन प्रकार का होता है, फिर प्रत्येक के दो-दो कि सानुनासिक और निरनुनासिक, इन छ भेदों को ह्रस्व, दीर्घ एवं प्लुत ऐसे जाते हैं। इस प्रकार 'अ' वर्ण के अठारह भेद बन जाते हैं ।
कि अ, अ, अ ये उदात्त भेद हो जाते हैं, जैसे अन्य भी तीन २ भेद हो
इसी प्रकार 'क' से लेकर 'ह' तक जितने व्यञ्जन हैं, उन के साथ मिलकर भी अठारह अठारह भेद बन जाते हैं। घट, पट, कर, एवं सकल-शकल, मकर आदि जितने भी शब्द हैं, उन के साथ अकार के अठारह अठारह भेद बन जाने से अनगिनत भेद बन जाते हैं। पदार्थ में अनन्त धर्म हैं, उन में जो अभिलाप्य हैं, वे अनन्तवें भाग मात्र हैं, वे अभिलाप्य वर्णात्मक हैं। जैसे घटादि पर्याय अकार से सम्बन्धित हैं। पुनः स्व-पर पर्याय की अपेक्षा से 'अ' कार सर्व द्रव्य पर्याय परिमाण कथन किया गया है । वृत्तिकार के इस विषय में निम्न लिखित शब्द हैं
"घटादि पर्याया अपि अकारस्य सम्बन्धिन इति स्व-पर पर्यायापेक्षया प्रकारः सर्वद्रव्यपर्याय-परिमाणः, एवमाकारादयोऽपि वर्णाः सर्वे प्रत्येकं सर्वदव्यपर्यायपरिमाणा वेदितव्या एवं घटादिकमपि प्रत्येकं सर्वषस्तुजातं परिभावनीयम् ।"
इस विषय को स्पष्ट करने के लिए आचाराङ्ग सूत्र में एक महत्व पूर्ण सूत्र है
जे एवं जाग्रह से सर्व जाणह, जे सम्यं जागर से एगं जागर ।
."
जो एक वस्तु की सर्व पर्यायों को जानता है, वह स्वपर्याय भिन्न अन्य वस्तुओं की सब पर्यायों को भी जानता है, जो सर्व पर्यायों को जानता है वह एक को भी जानता है अतः केवलज्ञानवत् अकार आदि वर्ण भी सर्वद्रव्य पर्याय परिमाण जानना चाहिए । घटादि पदार्थ स्व-पर्याय युक्त हैं और पट आदि