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________________ २७६ नन्दीसूत्रम् के उदय होने के साथ ही सम्यक्श्रुत भी लुप्त हो जाता है, जब प्रमाद के कारण, मनोमालिन्य से, महावेदना उत्पन्न होने से, विस्मृति से अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होने से सीखा हआ श्रुतज्ञान लुप्त हो जाता है, तब उस पुरुष की अपेक्षा से सम्यक्श्रुत सान्त हो जाता है। तीनों काल की अपेक्षा अथवा बहुत पुरुषों की अपेक्षा अनादि अनन्त है, क्योंकि ऐसा कोई समय न हुआ, और न होगा जब सम्यक्श्रुत वाले ज्ञानी जीव न हों। सम्यक्श्रुत का सम्यग्दर्शन के साथ आविनाभावी सम्बन्ध है। अतः एक पुरुष और एकभव की अपेक्षा सम्यक्श्रुत द्वादशाङ्गवाणी सादि है, भव बदलने से तथा उपर्युक्त कारणों से वह सम्यग्वाणी सान्त है। क्षेत्रतः-पांच भरत, पांच ऐरावत इन दस क्षेत्रों की अपेक्षा गणिपिटक सादि सान्त है, क्योंकि अवसर्पिणी के सुषमदुषम के अन्त में और उत्सर्पिणीकाल में दुःषमसुषम के प्रारंभ में तीर्थंकर भगवान सर्वप्रथम धर्मसंघ स्थापनार्थ द्वादशाङ्गगणिपिटक की प्ररूपणा करते हैं। उसी समय सम्यकश्रुत का प्रारंभ होता है । इस अपेक्षा से सादि, तथा दु:षमदुःषम आरे में सम्यक्श्रुत का व्यवच्छेद हो जाता है, इस अपेक्षा से सम्यकश्रुत गणिपिटक सान्त है। किन्तु पाँच महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा गणिपिटक अनादिअनन्त है। महाविदेह क्षेत्र में सदा-सर्वदा सम्यकुश्रुत का सभाव पाया जाता है। कालतः काल से जहां उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल वर्तते हैं, वहां सम्यकश्रुत गणिपिटक सादिसान्त है, क्योंकि कालचक्र के अनुसार ही धर्म प्रवृत्ति होती है। पांच महाविदेह में १६० विजय हैं, उन में न उत्सर्पिणी काल है और न अवसर्पिणी, इस अपेक्षा से द्वादशाङ्ग गणिपिटक अनादि-अनन्त है, क्योंकि महाविदेह क्षेत्रों में उक्त कालचक्र की प्रवृत्ति नहीं होती, वहां सदैव सम्यक्श्रुत अवस्थित रहता है, इसलिए वह अनादि अनन्त है। भावतः—जिस तिथंकर ने जो भाव वर्णन किए हैं, उन की अपेक्षा सादि-सान्त है, किन्तु क्षयोपशम भाव की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है । इस स्थान पर चतुर्भङ्ग होते हैं, जैसे कि १. सादि-सान्त, २. सादि-अनन्त, ३. अनादि-सान्त और ४. अनादि-अनन्त । । पहला भंग भव-सिद्धिक में पाया जाता है, कारण कि सम्यकत्व होने पर अंग सूत्रों का अध्ययन किया जाता है, वह तो सादि हुआ, मिथ्यात्व के उदय से या क्षायिक ज्ञान हो जाने से वह सम्यकश्रुत उस में नहीं रहता। इस दृष्टि से सम्यक्श्रुत सान्त कहलाता है, क्योंकि सम्यकश्रुत क्षायोपशमिक ज्ञान है। सभी क्षायोपशमिक ज्ञान सीमित होते हैं, निःसीम नहीं। द्वितीय भंग शून्य है, क्योंकि सम्यक्षत तथा मिथ्याश्रुत सादि होकर अपर्यवसित नहीं होता। मिथ्यात्व के उदय से सम्यक्श्रुत नहीं रहता और सम्यक्त्व का लाभ होने से मिथ्याश्रुत नहीं रहता। केवलज्ञान होने पर सम्यक्श्रुत एवं मिथ्याश्रुत दोनों का विलय हो जाता है। तीसरा भंग मिथ्याश्रुत की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि भव्यसिद्धिक मिथ्याहृष्टि का मिथ्याश्रुत अनादि काल से चला आ रहा है, किन्तु सम्यक्त्व लाभ हो जाने से मिथ्याश्रत का अन्त हो जाता है, इसलिए अनादिसान्त कहा है । चौथा भंग अनादि अनन्त है, अभव्यसिद्धिक का मिथ्याश्रुत अनादि-अनन्त है, क्योंकि उन जीवों को कदाचिदपि सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता, जैसे काक कभी भी मनुष्य की भाषा नहीं सीख सकता। वैसे ही अभव्यजीव भी सम्यक्त्व नहीं प्राप्त कर सकता।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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