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________________ सादि-सान्त, अनादि अनन्तश्रुत - ४. भाव से सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिन-तीर्थंकरों द्वारा जो भाव-पदार्थ जिस समय सामान्यरूप से कहे जाते हैं, जो नाम आदि भेद दिखलाने से कथन किए जाते हैं, हेतु-दृष्टान्त के उपदर्शन से जो स्पष्टतर किए जाते हैं और उपनय और निगमन से जो स्थापित किये जाते हैं, तब उन भावों-पदार्थों की अपेक्षा से सादि-सान्त है। क्षयोपशम भावों की अपेक्षा से सम्यक्-श्रुत अनादि-अनन्त है। अथवा भवसिद्धिक प्राणी का श्रुत सादि-सान्त है, अभवसिद्धिक जीव का मिथ्याश्रुत अनादि और अनन्त है। _____ सम्पूर्ण आकाश-प्रदेशाग्र को सब आकाश प्रदेशों से अनन्तगुणा करने से पर्याय अक्षर निष्पन्न होता है । सभी जीवों का अक्षर-श्रुतज्ञान का अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित-खुला रहता है । यदि वह भी आवरण को प्राप्त हो जाए तो उससे जीव-आत्मा अजीव भाव को प्राप्त हो जाए । क्योंकि चेतना जीव का लक्षण है । बादलों का अत्यधिक पटल ऊपर आ जाने पर भी चन्द्र और सूर्य की प्रभा तो होती ही है। इस प्रकार सादि सान्त और अनादि-अनन्तश्रुत का वर्णन है ।सूत्र ४३।। टीका-इस सूत्र में सादि-श्रुत सान्त-श्रुत, अनादि-श्रुत और अनन्त-श्रुत का विषय वर्णित है । इसी लिए सूत्रकार ने 'साइयं सपज्जवसियं, अणाइयं, अपज्जवसियं ये पद दिए हैं । यद्यपि ३८ वें सूत्र के क्रम से यहाँ उन का नामोल्लेख नहीं किया गया, तदपि व्याख्या में कोई अन्तर नहीं पड़ता । पहले सूत्र में सादि-अनादि, सान्त-अनन्त का युगल किया है, जबकि, इस सूत्र में सादि-सान्त और अनादि-अनन्त शब्दों का युगल बनाया है । यह चिन्तक के विचारों पर निर्भर है, वह इन में से चाहे किसी पर भी चिन्तनमनन कर सकता है । सपर्यवसित सान्त को कहते हैं और अपर्यवसित अनन्त का द्योतक है। यह द्वादशाङ्ग, गणिपिटक, व्यवच्छित्ति नय की अपेक्षा से सादि-सान्त है, किन्तु अव्यवच्छित्तिनय की अपेक्षा से अनादि अनन्त है। कारण कि व्यवच्छित्तिनय पर्यायास्ति का अपर नाम है, और अव्यवच्छित्तिनय द्रव्याथिक नय का पर्यायवाची नाम है । इस विषय में वृत्तिकार के शब्द निम्नलिखित हैं, जैसे कि. "इत्येतद् द्वादशाङ्ग गणिपिटकं, वोच्छित्तिनयट्टयाए, इत्यादि · व्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयो म्यवच्छित्ति नयः पर्यायार्थिकनय इत्यर्थः तस्यार्थो व्यवच्छित्तिनयार्थः पर्याय इत्यर्थः, तस्य भावो व्यवच्छित्तिनयार्थता, तया पर्यायापेक्षयेत्यर्थः, किमित्याह-सादि-सपर्यवसितं नारकादिभषपरिणत्यपेक्षया जीव इव अवोच्छित्तिनयट्टयाए, त्ति अव्यवच्छित्ति प्रतिपादनपरो नयोव्यवच्छितिनयोऽव्यवच्छित्तिनयस्तस्यार्थोऽव्यवच्छित्तिनयार्थो द्रव्यभित्यर्थः, तद्भावस्तता तया द्रव्यार्थिकापेक्षया इत्यर्थः, किमित्याह अनादि अपर्यवसितत्रिकालावस्थायित्वाज्जीवम् ।" इस का भावार्थ पहले लिखा जा चुका है। उस श्रुतज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चार भेद किए गए हैं। द्रव्यतः-एक जीव की अपेक्षा से सम्यक्श्रुत सादि-सान्त है। जब सम्यकत्व की प्राप्ति होती है, तब सम्यक्श्रुत की आदि और जब वह तीसरे या पहले गुणस्थान में प्रवेश कर जाता है तब मिथ्यात्व
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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