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नन्दीसूत्रम्
से साइ सपज्जवसि - सादि सपर्यवसित है, नो उस्सपिरिंग नो श्रोसप्पिणि च पडुच्चन उत्सर्पिणी और
न अवसर्पिणी की अपेक्षा से श्रणाइयं श्रपज्जवसि - अनादि अपर्यवसित है ।
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भाव - भाव से जे-जो जिणपण्णत्ता भावा- जिन सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित भाव पदार्थ जया - जिस समय श्राघविज्जति सामान्य रूप से कहे जाते हैं, परणविज्जंति नाम आदि भेद दिखलाने से जो कथन किए जाते हैं, निदंसिज्जंति हेतु दृष्टान्त के उपदर्शन से स्पष्टतर किए जाते हैं, उवदंसिज्जंति - उपनय और निगमन से जो स्थापित किए जाते हैं, तथा तब ते भावे पहुच्च — उन भावोंपदार्थों की अपेक्षा से साइयं सपज्जवसिश्रं सादि सपर्यवसित है, पुण और खश्रोवसमिश्रं भावं पहुच क्षयोपशम भावों की अपेक्षा श्राणाइत्रं श्रपज्जवंसिनं अनादि अपर्यवसित है ।
अहवा— अथवा भवसिद्धियस्स सुयं -भवसिद्धिक जीव का श्रुत साइयं सपज्जवसिश्रं च सादि सपर्यवसित है, अभवसिद्धिप्रस्स सुयं - अभवसिद्धिक जीव का श्रुत श्रणाइयं प्रपज्जवसियं च - अनादि अपर्यवसित है, सन्वागास सग्गं – सर्वाकाश प्रदेशाग्र सन्वागासपए सेहिं सर्वाकाश प्रदेशों से प्रणंत गुणियं – अनन्त गुणा करने से पज्जवक्ख रं-पर्याय अक्षर निष्फज्जइ उत्पन्न होता है, और सब जीवाणं पिसब जीवों का 'णं' वाक्यालाङ्कारार्थं में श्रक्खरस्स -- अक्षर - श्रुतज्ञान का - प्रणंत भागो - अनन्तवां भाग निच्चुग्धाडियो – नित्य उद्घाटित चिट्ठ― रहता है, जइ पुरा यदि फिर सोऽविवह भी आवरिज्जा - आवरण को प्राप्त हो जाए ते णं-तो उस से जीवो जीवसं— जीव आत्मा अजीव भाव को पाविज्जा प्राप्त हो जाए मेहसमुदए – मेघका समुदाय सुट्टुवि—अत्यधिक होने पर भी चंदसूराणं - चन्द्र-सूर्य की पभा - प्रभा होइ — होती ही है। से तं साइश्रं सपज्जवसिश्रं - इस प्रकार यह सादि सपर्यवसित और अणाइयं श्रपज्जवसि - अनादि अपर्यवसितश्रुत का विवरण सम्पूर्ण हुआ । भावार्थ - शिष्यने प्रश्न किया- भगवन् ! वह सादि सपर्यवसित और अनादि अपर्यवसितश्रुत किस प्रकार है ?
आचार्य उत्तर में कहने लगे - भद्र ! यह द्वादशाङ्ग रूप गणिपिटक ( सेठ के रत्नों डब्बे सदृश आचार्य की श्रुतरत्नों की पेटी ) पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से - सादि - सान्त है, और द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से आदि अन्त रहित है । वह श्रुतज्ञान संक्षेप में चार प्रकार से कथन किया गया है, जैसे
द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । उन चारों में
१. द्रव्यसे सम्यक् श्रुत, एक पुरुष की अपेक्षा से सादि सपर्यवसित - सादि और सान्त है। बहुत से पुरुषों की अपेक्षा से अनादि अपर्यवसित - आदि और अन्त रहित है ।
२. क्षेत्र से सम्यक् श्रुत - पांच भरत और पांच ऐरावत की दृष्टि से सादि-सान्त है। पांच महाविदेह की अपेक्षा से अनादि- अनन्त है ।
३. काल से सम्यक - श्रुत - उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी की अपेक्षा से सादि-सान्त है । नो उत्सर्पिणी नो अवसर्पिणी - अवस्थित अर्थात् काल की हानि और वृद्धि न होने की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है ।