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________________ नन्दीसूत्रम् केवल प्राण ही मानते हैं, इसी कारण उन्हें मारने व खाने में पाप नहीं मानते । इस प्रकार की मान्यता को भी मिध्यात्व कहा जाता है। ७. सासु साहुसरया असाधुओं में साधु संज्ञा, जो जर, जोरू जमीन के स्थायी नहीं हैं, ऐसे वेषधारी को भी साधु समझना या अपनी संप्रदाय में असाधुओं को भी साधु समझना मिथ्यात्व है । ८. सासु साहुसरा साधुओं में असा संज्ञा, श्रेष्ठ संयत, पांच महाव्रत तथा समिति, गुप्ति के पालक मुनियों को भी असाधु समझना, उन का मजाक उड़ाना, उन्हें ढोंगी पाखण्डी समझता मिध्यात्व है । ६. श्रमुत्ते मुत्तसण्णा - अमुक्तों में मुक्त संज्ञा, जो कर्म बन्धन से मुक्त नहीं हुए, पदवी को प्राप्त नहीं हुए, उन्हें कर्मबन्धन से रहित या भगवान समझना मिथ्यात्व है । जो भगवत् मुत्सु धमुत्सरा' जो आत्मा कर्मबन्धन से सर्वथा विमुक्त हो गए हैं, उनमें अमुक्त संज्ञा रखना । आत्मा कभी भी परमात्मा नहीं बन सकता, अल्पज्ञ से सर्वज्ञ नहीं बन सकता, आत्मा कर्मबन्धन से न कभी मुक्त हुआ और न होगा, ऐसी मान्यता को भी मिथ्यात्व कहते हैं । जैसे असली रत्न-जवाहिरात को नकली और नकली को असली समझने वाला झवेरी नहीं कहलाता, वैसे ही असत् सत् की जिसे पहचान नहीं, वह सम्यग्दृष्टि नहीं, मिथ्यादृष्टि कहलाता है । कोई मुक्त होने पर भी पुनः समयान्तर में संसार में लोटना मानते हैं । कोई स्त्रियों के साथ रंगलीला करते हुए को भी भगवान मानते हैं। कोई परमदयालु भगवान को भी शस्त्र-अस्त्रों से सुसज्जित तथा दुष्टों का विनाशक मानते हैं । कोई अभीष्ट ग्रन्थ को अपौरुषेय मानते हैं । कोई शून्यवाद को ही अभीष्ट तत्त्व मानते हैं । उन का कहना है कि विश्व में न जीव है और न अजीव हो । इस प्रकार की विपरीत दृष्टि को मिध्यात्व कहते हैं जब जीवात्मा मिध्यात्व से अनुरंजित होता है, तब उसे मिध्यादृष्टि कहते हैं । अर्थात् मिथ्या है दृष्टि जिस की, उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं । उसके द्वारा रचित ग्रन्थ शास्त्र को मिथ्याभुत कहा गया है। मनुष्य जिस ग्रन्थ शास्त्र के पढ़ने व सुनने से हिंसा में प्रवृत्त हो। शान्तहृदय में द्वेषाग्नि भड़क उठे, कामाग्नि प्रचण्ड हो जाए, अभक्ष्य पदार्थों के सेवन करने में प्रोत्साहन मिले, सभी प्रकार की बुराईयों का जन्म हो, ऐसा साहित्य मिथ्याभूत है। विश्व में जितना भी अवगुणपोषक एवं परिवर्द्धक साहित्य है, वह सब मिथ्याभूत है। यदि किसी ग्रन्थ व साहित्य में प्रसंगवश व्यावहारिक तथा धार्मिक शिक्षाएं और जीवन-उत्थान में कुछ सहयोगी उपदेश भी हों, और साथ ही अनुपयुक्त बातें भी हों 'तो भी वह साहित्य मिध्याश्रुत है, उदाहरण के रूप में मानो किसी ने सर्वोत्तम खीर परोसी और खाने वाले के सामने ही उसने पाली में विष की पुड़िया झाड़ दी या उसमें रक्त राम मल मूत्र आदि डाल दिया, जैसे वह खाद्य पदार्थ विजातीय तत्व के मिल जाने से अखाद्य बन जाता है वैसे ही जिस साहित्य में पूर्व अपर विरोधी तत्व या वचन पद्धति विरुद्ध - 1 १. स्थानाङ्गसूत्र, स्थान १० ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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