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________________ मिथ्या श्रुत २६७ क्योंकि सम्मत्तहेउत्तणओ – ये सम्यक्त्व में हेतु हैं, जम्हा – जिससे ते–वे मिच्छदिट्टिश्रा —– मिथ्यादृष्टि तेहिं चेत्र समएहिं – उन ग्रन्थों से चोइत्रा समाणा - प्रेरित किए गए केइ – कई सपक्खदिट्टिश्रो — अपने पक्ष दृष्टि को चयंति — छोड़ देते हैं, से त्तं मिच्छासु – यह मिथ्याश्रुत का वर्णन हुआ । भावार्थ - शिष्य ने पूछा- देव ! उस मिथ्या श्रुत का स्वरूप क्या है ? गुरुजी उत्तर में बोले – मिथ्याश्रुत अल्पज, मिथ्यादृष्टि और स्वाभिप्राय, बुद्धि व मति से कल्पित किए हुए ये जो भारत आदि ग्रन्थ हैं, अथवा ७२ कलाएं, चार वेद अङ्गोपाङ्ग सहित हैं, ये सभी मिथ्यादृष्टि के मिथ्यारूप में ग्रहण किए हुए, मिथ्या श्रुत हैं । यही ग्रन्थ सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व रूप में ग्रहण किए गए सम्यक् श्रुत हैं अथवा मिथ्यादृष्टि के भी, यही ग्रन्थ-शास्त्र सम्यक् श्रुत हैं, क्योंकि ये उन के सम्यक्त्व में हेतु हैं, जिससे कई एक मिथ्यादृष्टि उन ग्रन्थों से प्रेरित होकर स्वपक्ष - मिथ्यादृष्टित्व को छोड देते हैं । इस तरह यह मिथ्याश्रुत का स्वरूप है | सूत्र ४२ ॥ । टीका – इस सूत्र में मिथ्याश्रुत का उल्लेख किया गया है । मिथ्याश्रुत किसे कहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि मिथ्यादृष्टि एवं अज्ञानी जो भी अपनी सूझ-बूझ एवं कल्पना से जनता के सम्मुख विचार रखते हैं, वे विचार तात्विक न होने से मिथ्याश्रुत हैं । अर्थात् जिन की दृष्टि - विचार - सरणि मिध्यात्व से अनुरंजित है, उन्हें मिथ्यादृष्टि कहते हैं । मिथ्यात्व दस प्रकार का होता है, उसमें से यदि किसी जीव में एक प्रकार का भी हो तो, वह मिथ्यादृष्टि है, जैसे १. अधम्मे धम्मसण्णा - अधर्म में धर्म समझना, संज्ञा शब्द 'सम्' पूर्वक 'ज्ञा' धातु से बना है, जिस का अर्थ होता है— विपरीत होते हुए भी जिसे सम्यक् समझा जाए। ईश्वर के नाम पर, पितरों के नाम पर हिंसा आदि पाप कृत्य को धर्म समझना, मांस- अण्डा, मदिरा आदि के सेवन करने में धर्म मानना, मिथ्यात्व है । जैसे देव-देवी के नाम पर, समझना, शिकार खेलने में धर्म अन्याय-अनीति में धर्म मानना रत्नत्रय को अधर्म समझना । 1 २. धम्मे अधम्मसरणा-अहिंसा, संयम, तप तथा ज्ञान दर्शनादि आत्मशुद्धि के मुख्य कारण को धर्म कहते हैं । धर्म में अधर्म संज्ञा रखना भी मिथ्यात्व है । ३. उम्मग्गे मग्गसण्णा — उन्मार्ग में सन्मार्ग संज्ञा, संसार मार्ग को मोक्ष मार्ग, दुःखपूर्ण मार्ग को सुख का मार्ग समझना मिथ्यात्व है । ४. मग्गे उम्मग्गसरणा-मोक्ष मार्ग को संसार का मार्ग समझना, " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष मार्ग : " इसे संसार का मार्ग समझना मिथ्यात्व है । ५. अजीवेसु जीवसण्णा - अजीवों में कुछ भी दृश्यमान है, वे सब जीव ही जीव हैं, जीव समझना मिथ्यात्व है । जीव संज्ञा, जड़ पदार्थ में भी जीव समझना अर्थात् जो अजीव पदार्थ विश्व में है ही नहीं, इस प्रकार अजीवों में ६. जीवेसु श्रजीवसण्णा - जीवों में अजीव की संज्ञा, जैसे चार्वाक दर्शनानुयायी शरीर से भिन्न आत्मा के अस्तित्व से सर्वथा इन्कार करते हैं तथा कुछ एक विचारक जानवरों में जीवात्मा नहीं मानते, उनमें
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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