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मिथ्या-श्रुत
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पाई जाए, वह साहित्य मिथ्याश्रुत है । वह चाहे किसी संप्रदाय में, किसी देश में या किसी भी काल में विद्यमान हो, वह मिथ्याश्रुत है।
___ आगमकार ने ७२ कलाओं को मिथ्याश्रुत कहा है, जब कि उनका आविष्कार ऋषभदेव भगवान ने किया, फिर उन्हें मिथ्याश्रुत कहने या लिखने का क्या अभिप्राय है ?
इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरक को समाप्त होने में जब चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ महीने शेष रहते थे, तब ऋषभदेव जी का जन्म हुआ। बीस लाख पूर्व तक उन्होंने राजपाट करने योग्य भूमिका तैयार की। ६३ लाख पूर्व तक उन्होंने राजपाट किया । उस समय लोग राजनीति से बिल्कुल अनभिज्ञ थे । राजनीति के अभाव में धर्मनीति नहीं चल सकती। अराजकता में धर्म का प्रादुर्भाव नहीं होता, यह विश्व का अनादि नियम है । ऋषभदेव जी गृहवास में आदर्श गृहस्थ बनकर रहे और राजावस्था में आदर्श राजा हुए। उन्होंने राजावस्था में राज- नीति से सम्बन्धित अनेक प्रकार की कलाएँ और शिल्प अनभिज्ञ प्रजा को सिखाए । असि-मसि और कृषि विद्या से जनता को परिचित कराया। साम, दाम, भेद और दण्ड इस प्रकार चार तरह की राजनीति का श्रीगणेश किया। ८३ लाख पूर्व तक राजनीति से सम्बन्धित सभी ज्ञातव्य विषयों से जनता को अवगत कराया। इतने लम्बे काल में उन्होंने धर्मबीज का वपन प्रजा के हृदय में नहीं किया, क्योंकि राजनीति धर्मनीति की भूमिका है। ऋषभदेव जी से पहले इस अवसर्पिणीकाल में कोई भी राजा नहीं हुआ। ७२ कलाएं पुरुषों की, ६४ कलाएं महिलाओं की, १०० प्रकार का शिल्प, ये सब विद्याएं राजनीति से ओत-प्रोत हैं अथवा इन्हें राजनीति की भूमिका भी कह सकते हैं। महामानव जिस कर्तव्य के स्तर पर खड़े होते हैं, वे उसका पालन उचित रीति से करते हैं । जब उन्होंने राजपाट को छोड़कर संन्यासाश्रम को अपनाया तब वे धर्म में संलग्न होगए। साधना की चरम सीमा में पहुँच कर उन्होंने कैवल्य प्राप्त किया। तत्पश्चात्, उन्होंने ७२ कलाएँ सीखने-सीखाने के लिए उपदेश नहीं दिया। जो आध्यात्मिक तत्त्व के पोषक-परिवर्द्धक हैं, उनका अपने प्रवचन में प्रकाश किया और उनके पालन करने के लिए आज्ञा दी है। धर्मकला के अतिरिक्त शेष कला के सीखने-सिखाने का स्पष्ट निषेध किया है। क्योंकि वे कलाएं धर्म मार्ग में हेय एवं त्याज्य है । धर्ममार्ग में धर्मनीति से भिन्न यावन्मात्र विश्व में कलाएँ हैं, वे सब मिथ्याश्रुत हैं अर्थात् जो क्रियाएं राजनीति से सर्वथा भिन्न हैं। वही धर्मनीति है । सभी भावी तीर्थकर गृहस्थाश्रम में राजनीति की मर्यादा में रहते हुए स्व-कर्तव्य का पालन करते हैं, मिथ्यात्व के अतिरिक्त सभी आश्रवों का सेवन करते हैं, और तो क्य समय आने पर रणाङ्गण में रणकौशल भी दिखाते हैं । सप्त कुव्यसनों का सेवन करना राजनीति से विरुद्ध है। अतः वे उनका सेवन नहीं करते और न दूसरों को प्रेरणा करते हैं। देववाचक जी के युग में ७२ कलाओं से सम्बन्धित जितने सूत्र, वार्तिका और भाष्य थे, वे सब उन्होंने मिथ्याश्रुत के अन्तर्भूत कर दिए । उन्होंने जिनवाणी को ही मुख्यतया सम्यक्श्रुत माना है । शेष सब मिथ्याश्रुत ।
जो साहित्य अवगुणों के पोषक, विषय कषाय के वर्द्धक एवं सद्गुणों के शोषक हैं। उसे मिथ्याश्रुत कहा जाए तो कोई हानि नहीं, किन्तु इस सूत्र में तो व्याकरण को भी मिथ्याश्रुत कहा है, इसका क्या कारण है?
इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि केवल व्याकरण के अध्ययन करने मात्र से आत्मतत्त्व का बोध नहीं होता, वह तो मात्र शब्द शुद्धि का एक साधन है। व्याकरण के अध्ययन करने से
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