________________
मिथ्या-श्रुत
_ "गणिपिडगं त्ति गणो-गच्छो गुणगणो वाऽस्यास्तीति गणी-प्राचार्यस्तस्य पिटकमिवपिटकं. सर्वस्वमित्यर्थः,गणिपिकम् । अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचनोऽप्यस्ति, तथा चोक्तम्
"पायरम्मि अहीए जं नाश्रो होइ समणधम्मो उ ।
तम्हा आयारधरो, भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ॥ गणीनां पिटकं गणिपिटकं परिच्छेद समूह इत्यर्थः।। अङ्ग-परमपुरुष के अंग की भान्ति ये सम्यक्-श्रुत के अंग कहलाते हैं, जैसे कि कहा भी है
प्रणीतम, अर्थकथनद्वारेण प्ररूपितं, किं तदित्याह 'द्वादशाङ्ग' श्रुतरूपस्य परमपुरुषस्याङ्ग, नीवाङ्गानि, द्वादशाङ्गानि, प्राचाराङ्गादीनि यस्मिन् तद् द्वादशाङ्गम् ।"
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि अरिहन्त भगवन्तों के अतिरिक्त अन्य जो श्रतज्ञानी हैं, वे भी क्या आप्त पुरुष हो सकते हैं ? हाँ, हो समते हैं। सम्पूर्ण दस पूर्वधर से लेकर चौदह पूर्वधर तक जितने भी ज्ञानी हैं, उनका कथन नियमेन सम्यक्श्रुत ही होता है, ऐसा सूत्रकार का अभिमत है। किंचिन्यून दस पूर्व से पहले-पहले जो पूर्वधर हैं, उन में सम्यक् श्रुत की भजना है अर्थात् विकल्प है, कदाचित् सम्यक्श्रुत हो, कदाचित् मिथ्याश्रुत । एकान्त मिथ्यादृष्टि जीव भी पूर्वो का अध्ययन कर सकते हैं, किन्तु वे अधिक से अधिक कुछ कम दस पूर्वो का अध्ययन कर सकते हैं, क्योंकि उनका ऐसा ही स्वभाव है। जैसे अभव्यात्मा यथाप्रवृत्तिकरण से ग्रन्थिदेश में पहुंचने पर भी उस का भेदन नहीं कर सकता, तथास्वभाव होने से। इस विषय में वृत्तिकार के निम्न लिखित शब्द हैं, जैसे कि___ . "एतदेव श्रुतं परिमाणतो व्यक्तं दर्शयति–इत्येतद् द्वादशाङ्ग गणिपिटकं यच्चतुर्दशपूर्वी तस्य सकलमपि सामायिकादिबिन्दुसारपर्यवसानं नियमात् सम्यक्श्रुतं, ततोऽधोमुखपरिहान्या नियमतः सर्व सम्यक्श्रुतं तावद् वक्तव्यं यावदभिन्नदशपूर्विणः-सम्पूर्णदशपूर्वधरस्य, सम्पूर्णदशपूर्वधरत्वादिकं हि नियमत: सम्यग्दष्टेरेव, न मिथ्यादृष्टस्तथास्वभाव्यात् ।" तथा हि यथा अभव्यो ग्रन्थिदेशमुपागतोऽपि तथास्वभावत्वान्न ग्रन्थिभेदमाधातुमलम्-एवं मिथ्यादृष्टिरपि श्रतमवगाहमानः प्रकर्षतोऽपि तावदवगाहते यावकि ञ्चिन्न्यूनानि दशपूर्वाणि भवन्ति परिपूर्णानि तानि नावगाढु शक्नोति तथारवभावत्वादिति ।" इस का सारांश इतना ही है कि चौदह पूर्व से लेकर यावत् सम्पूर्ण दश पूर्वो के ज्ञानी निश्चय
। है। अतः उनका कथन किया हुआ प्रवचन भी सम्यक्श्रुत होता है, क्योंकि वे भी जैन दर्शनानुसार आप्त ही है। शेष अङ्गधरों या पूर्वधरों में सम्यकश्रुत का होना नियमेन नहीं हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि हो तो उसका प्रवचन सम्यक्श्रुत है, अन्यथा मिथ्याश्रुत है ।।सूत्र ४१॥
६. मिथ्या-श्रुत मूलम्- से किं तं मिच्छासुग्रं ? मिच्छासुग्रं, जं इमं अण्णाणिएहिं, मिच्छादिट्ठिएहिं, सच्छंदबुद्धि-मइविगप्पिग्रं, तं जहा–१. भारह, २. रामायणं, ३. भीमासुरुक्खं, ४. कोडिल्लयं, ५. सगडभद्दिामो, ६. खोड(घोडग) मुह, ७. कप्पासिग्रं, ८. नागसुहुमं, ६. कणगसत्तरी, १०. वइसेसिअं, ११. बुद्धवयणं, १२. तेरासिनं, १३. काविलिअं, १४. लोगाययं १५. सद्वितंतं,