SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नन्दीसूत्रम् तीव्र श्रद्धा-भक्ति से जो अवलोकित हैं, असाधारण गुणों से प्रशंसित हैं तथा प्रशस्त मन-वचन और काय के द्वारा वन्दनीय एवं नमस्करणीय हैं, सर्वोत्कृष्ट आदर एवं बहुमान आदि से पूजित हैं। यह पद मायावियों में भी पाया जाता है, जैसे कि कहा भी है "देवागम-नभोयानं, चामरादिविभृतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्वमसि नो महान् । इसलिए इसका व्यवच्छेद करने के लिए विशेषणान्तर प्रयुक्त किया है १. तीयपदुप्पण्णमणागयजाणएहि-जो तीनों काल को जानने वाले हैं। यह विशेषण मायावियों में तो नहीं पाया जाता, किन्तु कतिपय व्यवहार नय का अनुसरण करनेवाले कहते हैं कि "ऋषयः संयतात्मानः, फलमूलानिलाशनाः। तपसैव प्रपश्यन्ति, त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥" अर्थात विशिष्ट्र ज्योतिषी तथा अवधिज्ञानी भी तीन काल को उपयोग पूर्वक जान सकते हैं, इसलिए सूत्रकार ने कहा है ६.सम्बएणूहिजो विश्व के उदरवर्ती सभी पदार्थों को हस्तामलकवत् जानते हैं, जिनके ज्ञानदर्पण में सभी द्रव्य और सभी पर्याय प्रतिबिम्बित हो रहे हैं। जिनका ज्ञान इतना महान् है; जोकि निःसीम है । अतः यह विशेषण प्रयुक्त किया है ७. सम्बदरिसीहिं—जो सभी द्रव्यों और उनकी सभी पर्यायों का साक्षात्कार करते हैं । जो इन सात विशेषणों से सम्पन्न होते हैं, वस्तुतः सर्वोत्तम आप्त वे ही होते हैं। वे ही द्वादशाङ्ग गणिपिटक के प्रणेता हैं । वे ही सम्यक्श्रुत के रचयिता होते हैं । सातों विशेषण तृतीयान्त हैं और ये तेरहवें गुणस्थानवर्ती । जीवन्मुक्त उत्तम पुरुषों के हैं, न कि अन्य पुरुषों के । पणोअं यह क्रिया है । दुवालसंगं गणिपिडगं यहकर्म . है । अतः यह वाक्य कर्मवाच्य है, न कि कर्तृवाच्य । वे बारह अङ्ग सम्यक्-श्रुत हैं, उन्हें गणिपिटक भी कहते हैं । गणिपिटक-जैसे बहुत बड़े धनाढ्य या महाराजा के यहां पेटी या सन्दूक उत्तमोत्तम रत्न, मणि, हीरे, पन्ने, वैडूर्य आदि पदार्थों और सर्वोत्तम आभूषणों से भरे हुए होते हैं, वैसे ही गणपति आचार्य के यहाँ विचित्र प्रकार की शिक्षाएं, उपदेश, नवतत्त्व निरूपण, द्रव्यों का विवेचन, धर्मकथा, धर्म की व्याख्या, आत्मवाद, क्रियावाद, कर्मवाद, लोकवाद, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, प्रमाणवाद, नयवाद, स्याद्वाद, अनेकान्तवाद- तीर्थंकर बनने के उपाय, सिद्ध भगवन्तों का निरूपण, तप का विवेचन, कर्मग्रंथी भेदन के उपाय, चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव के इतिहास, रत्नत्रय का विश्लेषण इत्यादि अनेक विषयों का जिनमें यथार्थ निरूपण किया गया है। ऐसी भगवद्वाणी को गणधरों ने बारह पिटकों में भर दिया है । जिस पिटक का जैसा नाम है, उसमें वैसे ही सम्यकश्रतरत्न निहित हैं। उनके नाम निम्नलिखित हैं १. आचाराङ्ग, २. सूत्रकृताङ्ग, ३. स्थानाङ्ग, ४. समवायाङ्ग, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञाता धर्मकथाङ्ग, ७. . उपासकदशाङ्ग, ८. अन्तकृत्दशाङ्ग, ६. अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग, १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाकश्रुत, १२. दृष्टिवादाङ्ग। ये बारह पिटकों के पवित्र नाम हैं । यही आचार्य के पिटक हैं। वृत्तिकार भी इस विषय में लिखते हैं
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy